26/11 मुम्बई पर आतंकी हमला और कुछ अनुत्तरित प्रश्न

26/11 मुम्बई पर आतंकी हमला और कुछ अनुत्तरित प्रश्न

26 नवम्बर 2008 : मुम्बई पर आतंकी हमला

रमेश शर्मा

26/11 मुम्बई पर आतंकी हमला और कुछ अनुत्तरित प्रश्न 26/11 मुम्बई पर आतंकी हमला और कुछ अनुत्तरित प्रश्न

भारतीय इतिहास के पन्नों में 26 नवम्बर 2008 का दिन वह काला अध्याय है, जब देश की औद्योगिक राजधानी समझी जाने वाली मुम्बई पर सबसे भीषण और सुनियोजित हमला हुआ था। इस हमले में प्रत्यक्ष हमलावर केवल दस थे, पर तीन दिनों तक पूरा देश आक्रांत रहा। इस हमले को तेरह साल बीत गये, लेकिन कुछ प्रश्नों का समाधान अभी तक नहीं हुआ, कुछ रहस्यों पर आज भी परदा पड़ा है। हमले का एक पहलू यह भी है कि एएसआई तुकाराम आँवले ने गोलियों से छलनी होकर भी आतंकवादी कसाब को जिंदा पकड़ लिया था। उनके प्राणों ने भले शरीर को छोड़ दिया, पर तुकाराम ने कसाब को नहीं छोड़ा था। कसाब की पकड़ से ही भारत यह प्रमाणित कर पाया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ है।

आतंकवादी हमलों से तो कोई नहीं बचा, आधी से अधिक दुनियाँ आक्रांत है। अमेरिका इंग्लैंड और फ्राँस जैसे देशों ने भी आतंकवादी हमले झेले हैं। इन सब हमलों के पीछे एक विशेष मानस और मानसिकता रही है, जो दुनियाँ को केवल अपने रंग में रंगना चाहती है। हालांकि अब तक हुये आतंकवादी हमलों में सबसे भीषण हमला अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड टॉवर पर हुआ हमला माना जाता है, पर मुम्बई का यह हमला उससे कहीं अधिक घातक माना गया। यह आधुनिकतम तकनीक और सटीक व्यूह रचना के साथ हुआ था। कोई कल्पना कर सकता है कि केवल दस आदमी सवा सौ करोड़ के देश की दिनचर्या तीन दिन तक हलकान कर सकते हैं? ये कुल दस हमलावर थे, जो एक विशेष आधुनिकतम नौका द्वारा समुद्री मार्ग से मुम्बई पोर्ट पर आये थे। वे रात्रि लगभग सवा आठ बजे कुलावा तट पर पहुँचे थे। सब एक ही नाव में आये थे। उनके हाथ में कलावा बंधा था और कुछ के गले में भगवा दुपट्टा भी दिख रहा था। सभी के पास बैग थे। ये जैसे ही पोर्ट पर उतरे मछुआरों ने देखा। उन्हें ये लोग सामान्य नहीं लगे, न कद काठी में और न वेश भूषा में। सामान्यतः ऐसी भगवाधारी टीम नाव से कभी नहीं आती। नाव भी विशिष्ट थी। इसलिये मछुआरों को उनमें कुछ अलग लगा। मछुआरों ने इसकी सूचना वहां तैनात पुलिस चौकी को भी दी थी। किंतु पुलिस को मामला इतना गंभीर न लगा, जितना बाद में सामने आया। भगवा दुपट्टे के कारण पुलिस ने ध्यान न दिया और सभी आतंकवादी पोर्ट से बाहर आ गये। वे वहां से दो टोलियों में निकले, बाद में पाँच टोलियों में विभाजित हो गए। इन्हें पाँच टारगेट दिये गये थे। प्रत्येक टारगेट पर दो दो लोगों को पहुँचना था। ये टारगेट थे- होटल ताज, छत्रपति शिवाजी टर्मिनल, नारीमन हाउस, कामा हॉस्पिटल, और लियोपोल्ड कैफे। कौन कहाँ और कब पहुँचेगा, यह भी सुनिश्चित था। ये सभी रात सवा नौ बजे तक अपने अपने निर्धारित स्थानों पर पहुँच गये थे, हमला साढ़े नौ बजे से आरंभ हुआ। इन्हें पाकिस्तान में बैठकर कोई जकीउर्रहमान कमांड दे रहा था। जकी ने साढ़े नौ बजे ही हमले की कमांड दी। ये सभी अपने मस्तिष्क से नहीं अपितु मिल रही कमांड के आधार पर काम कर रहे थे। इसलिये अपने टारगेट पर पहुँचकर इन्होंने कमांड की प्रतीक्षा की। कहाँ बम फोड़ना है, कहाँ गोली चलाना है, कितनी गोली चलाना है, यह भी कमांड दी जा रही थी। यह हमला कितनी आधुनिक तकनीक से युक्त था, इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान में बैठा जकीउर्रहमान इन सभी को देख सकता था, और वह देखकर बता रहा था कि किसे क्या करना है। वह किसी ऐसी आधुनिक प्रयोगशाला में बैठा था, जहाँ से वह इन्हें आगे बढ़ने का, दाएं या बायें मुड़ने का मार्ग भी बता रहा था और आगे पुलिस प्वाइंट कहाँ है, यह भी बता रहा था। बहुत संभव है कि इन पाँचों टीमों को कमांड देने वाले लोग अलग अलग हों। बाकी हमलावरों की मौत हो गयी, इसलिये उनका रहस्य, रहस्य ही रह गया। जकी का नाम इसलिये सामने आया कि कसाब पकड़ा गया और उसने नाम बता दिया। ये आतंकवादी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन लश्करे तय्यबा के सदस्य थे। सभी के पास एके-47 रायफल, पिस्टल, 80 ग्रेनेट और विस्फोटक, टाइमर्स और दो हजार गोलियाँ थीं। हमला 26 नवम्बर को आरंभ हुआ और 28 नवम्बर की रात तक चला। 29 नवम्बर को सरकार की ओर से अधिकृत घोषणा की गयी कि भारत हमला मुक्त हो गया है। तब जाकर पूरे देश ने चैन की सांस ली। इस हमले में 166 लोगों की मौत हुई। घायल हुए जिन लोगों ने बाद में प्राण त्यागे, उन्हें मिलाकर आंकड़े दो सौ से ऊपर जाते हैं। तीन सौ अधिक लोग घायल हुए। आतंकवादियों से निबटने के लिए सुरक्षा बलों ने ऑपरेशन “ब्लैक टोर्नेडो” चलाया था। यह मुकाबला कोई साठ घंटे चला। अंतिम मुक़ाबला होटल ताज में हुआ था। आतंकवादी अपनी योजना और कमांड के अनुसार हर स्पॉट पर दो दो थे। होटल ताज को इन दो आतंकवादियों से मुक्त कराने में सुरक्षा बलों को पसीना आ गया था। इसका एक कारण यह था कि सुरक्षा बलों को इनकी लोकेशन का पता देर से लगा जबकि आतंकवादियों को होटल के हर कोने की गतिविधियों का पता कमांड से चल रहा था। आतंकवादियों को होटल में सुरक्षा बलों के मूवमेंट का पता होता था, जबकि सुरक्षा बलों को डेढ़ दिन तक इनके मूवमेंट का पता ही नहीं चला। आतंकवादियों ने होटल के कैमरे और लिफ्ट सिस्टम को नष्ट कर दिया था। पाकिस्तान में बैठा इनका कमांडर होटल की हर गतिविधि को देख रहा था, उसी अनुसार इन्हें कमांड दे रहा था, जिससे ये अपनी लोकेशन बदल लेते थे। इसलिये वे होटल ताज में जन और धन दोनों का अधिक नुकसान कर पाये।

बलिदानी तुकाराम आँवले

होटल ताज के बाद सबसे अधिक क्षति और आतंक शिवाजी टर्मिनल पर आये दोनों आतंकवादियों ने मचाया। शिवाजी टर्मिनल पर मरने वालों की संख्या 58 और घायलों की संख्या 104 थी। यहीं सड़क पर आठ पुलिसकर्मी भी मारे गये। यहीं एएसआई तुकाराम ने आतंकवादी कसाब को जिंदा पकड़ा। यदि कसाब जिन्दा न पकड़ा जाता तो इस हमले की आँच पाकिस्तान पर न आती और इस हमले को भी “भगवा आतंकवाद” के नाम मढ़ दिया जाता जैसे मालेगाँव विस्फोट, मक्का मस्जिद, अजमेर ब्लास्ट और समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फोट के समय षड्यंत्र पूर्वक किया गया था। प्रयास मुम्बई हमले के समय में भी किया गया। एक उर्दू पत्रकार अजीज बर्नी ने पहले लेख माला चलाई, फिर उसका संकलन निकाला और इन लेखों में बाकायदा इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का षड्यंत्र साबित करने के प्रयास किए गए। चूँकि कसाब जिन्दा पकड़ा गया था और उसने अपने घर का पता भी बता दिया था। इसलिये इस बार वह वैचारिक षड्यंत्र असफल हो गया, जो गोधरा कांड के बाद से किया जा रहा था।

शिवाजी टर्मिनल पर जो आतंकवादी आये थे, उनमें से एक का नाम इस्माइल खान था और दूसरा अजमल कसाब था। गिरफ्तारी के बाद कसाब ने इस आतंकवादी टीम को मिले प्रशिक्षण का जो विवरण दिया, वह आश्चर्यचकित करने वाला था। ये सभी लश्कर के फिदायीन दस्ते के सदस्य थे। कसाब के बयानों के अनुसार सभी आतंकवादियों को ट्रेनिंग मुजफ्फराबाद के पहाड़ पर बने कैम्प में दी गयी थी। इसमें तैरने, नौकायन, हथियार चलाने के साथ कमांडो ट्रेनिंग भी दी गयी थी। इन्हें शस्त्र संचालन, हमला करने और हमले से बचाव की ही नहीं मजहबी और मनौवैज्ञानिक प्रशिक्षण भी दिया गया था। प्रतिदिन मजहबी प्रवचन भी होते थे। उन्हें यह समझाया गया था कि उनका जन्म ही अल्लाह के काम के लिए हुआ है। वे जितना बड़ा काम करेंगे, अल्लाह उतना प्रसन्न होगा और जन्नत अता करेगा। इसके लिये प्रतिदिन क्लास लगती थी। इसी कारण अपनी फाँसी के पहले क्षण तक कसाब को अपने किए पर कोई पछतावा न था। उसे इस बात का संतोष था कि वह अपने काम में सफल रहा, लेकिन उसे इस बात का मलाल रहा कि उसे जन्नत देर से नसीब हो रही है जबकि उसके साथी कबके अल्लाह के निकट पहुँच गये।

अपनी योजना के अनुसार कसाब और इस्माइल सवा नौ बजे के आसपास शिवाजी टर्मिनल पर पहुँच गये थे। उन्होंने साढ़े नौ बजे हमला शुरू किया। सबसे पहले वेटिंग लाउंज में बैठे लोगों पर बम फोड़ा, जब भगदड़ मची तो गोलियाँ चलाईं। वे लगभग 15 मिनट तक यही सब करते रहे, फिर सुरक्षित बाहर निकले और कार से डीबी मार्ग की ओर गये। सूचना मिलने पर पुलिस ने जगह जगह बेरीकेडिंग कर दी। बेरीकेडिंग के लगभग पचास मीटर पहले ही गाड़ी रुकी। गाड़ी इस्माइल चला रहा था और कसाब साथ वाली सीट पर था। गाड़ी मुड़ने लगी, पुलिस ने रोकने का प्रयास किया तो कसाब ने गोलियां चलाना शुरु कर दीं। पुलिस ने प्रत्युत्तर में गोलियाँ चलाईं, गोली इस्माइल को लगी, गाड़ी तिरछी होकर रुक गयी, कसाब ने उसे सरका कर ड्राइविंग संभालने का प्रयास किया। मौके का लाभ उठाया एएसआई तुकाराम आंवले ने। वे दौड़कर कार के पास गये। जैसे ही वे निकट पहुंचे, कसाब ने स्टेनगन से गोलियाँ चलाना आरंभ कर दीं। तुकाराम ने बंदूक की नाल पकड़ ली। गोलियां उनके सीने और शरीर को बेधने लगीं। गोलियों की बौछार के बीच उन्होंने स्वयं को उछालकर कसाब के ऊपर गिरने का प्रयास भी किया। वे स्टेनगन पकड़े थे, गोलियां चल रहीं थीं, उनके सीने पर लग रहीं थीं। उनकी पीठ के पीछे अन्य पुलिस टीम थी, इसका लाभ दो सिपाहियों को मिला। वे फुर्ती से निकले और कसाब को जिन्दा पकड़ लिया। बलिदानी तुकाराम को कुल 23 गोलियाँ लगीं थीं। उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया।

अनुत्तरित प्रश्न

इस घटना को अब तेरह साल बीत गये हैं। कसाब को 21 नवम्बर 2012 को यरवदा जेल में फाँसी भी हो गयी। लेकिन इस पूरे हमले में कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर न मिला। हो सकता है जाँच में कोर्ट के सामने आये हों। पर सार्वजनिक न हो सके। सबसे पहले तो इन सबका कलावा बाँध कर आना। दूसरा इनके पास फर्जी आईडी कार्ड होना। जो फर्जी आईडी कसाब के पास मिली थी, वह अजमेर के जितेन्द्र चौधरी के नाम थी। बाद की जाँच में वह आईडी पूरी तरह फर्जी निकली। हो सकता है कि बाकी आतंकवादियों के पास भी ऐसी फर्जी आईडी हों, जो मिल न सकीं। यहां एक प्रश्न यह भी है कि आतंकवादी यदि अल्लाह के काम से निकले थे तब इनको कलावा बाँधने की क्या आवश्यकता थी? भारत में गोधरा कांड के बाद से एक योजनाबद्ध शब्द आया भगवाधारी आतंकवाद। ऐसे शब्द मालेगाँव विस्फोट, मक्का मस्जिद विस्फोट, समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट आदि के समय भी आये थे। उन सब घटनाओं में घटनास्थल पर कोई नहीं पकड़ा गया। बाद में कुछ लोगों को पकड़ा गया, उनमें असीमानंद, भावानंद, साध्वी प्रज्ञा भारती थीं। इन सब को भारी यातनाएं देकर अपराध कबूल करवाने और कथित तौर पर सबूत जुटाने के प्रयास हुए। लेकिन कोई सबूत न मिला। तो क्या घटनाओं को भगवा रंग और कलावा संस्कृति से जोड़ने का लाभ पाकिस्तान में बैठे लश्कर के आतंकवादी संगठन ने उठाने का प्रयास किया? या जो लोग भगवा आतंकवाद का नारा लगा रहे थे, उनके पीछे कोई छद्म भेदी उन्हें भटका कर उनसे ऐसा करवा रहा था? कसाब के जिन्दा पकड़े जाने के बाद भी इस घटना को भगवा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ने का प्रयास जनवरी 2009 तक चला। बाकायदा लेख लिखे गये, टीवी डिबेट में भी आरोप लगाया गया, और एक पुस्तक भी सामने आई, जिसके विमोचन में दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद आदि नेता रहे। इस आरोप पर विराम 7 जनवरी 2009 लगा जब पाकिस्तान ने स्वीकार किया कि अजमल कसाब पाकिस्तान का रहने वाला है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पाकिस्तान ने जकीउर्रहमान को भी गिरफ्तार किया और बाद में जमानत पर छोड़ दिया।

तीसरा और सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि पाकिस्तान से आने वाले क्या केवल दस आदमी थे? क्या कोई ऐसी टीम नहीं होगी, जिसने इन सबको अपने अपने टारगेट पर पहुँचाया? कसाब के साथ जो गाड़ी पकड़ी गयी, वह गाड़ी इन लोगों ने निकलने के लिये हाइजैक की थी। कसाब सहित सारी टीमें ठीक समय पर अपने अपने स्थान पर कैसे पहुँचीं? वह साधन क्या थे, किसने पहुँचाया? कुछ अपुष्ट समाचारों में यह बात भी आई थी कि कुल सत्रह लोगों की टीम थी। सात लोग तीन दिन पहले आ गये थे। लेकिन उनका कोई सुराग न लग पाया। इसका कारण यह था कि कसाब ने केवल अपने बारे में बताया। बाकी सबके वह पूरे नाम भी न जानता था। उनके ट्रेनिंग कैंप में व्यक्तिगत बात करना, परिचय पूछना मना था, सबको कोड नाम से बुलाते थे।

एक चौथा प्रश्न जो राजनैतिक आरोप प्रत्यारोप में खो गया। वह है हेमन्त करकरे की मौत का। हेमन्त करकरे को उस दिन कंट्रोल रूम पर सिचुएशन कोआर्डिनेट करनी थी फिर वे टीम लेकर मैदान में क्यों पहुंचे, वह भी साधारण हथियारों के साथ?

बहरहाल मुम्बई ने हमलों का सबसे अधिक दंश झेला है। 1983 के सीरियल ब्लास्ट के बाद 2008 के इस हमले तक कुल 13 बड़ी घटनाएँ हुईं, जिनमें 257 मौतें और 700 से अधिक लोग घायल हुए।  इस बड़ी घटना के बाद कुछ विराम सा लगा। अब समाज और राजनेताओं को राजनीतिक हित और राष्ट्रहित में अंतर अवश्य रखना होगा। आक्रमण यदि राष्ट्र पर है तो राजनीति आड़े नहीं आनी चाहिए।

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