पर्यावरण संरक्षण व प्रकृति पूजा भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग
सुखदेव वशिष्ठ
हमें विश्व का सबसे बड़ा तथा श्रेष्ठ लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है। इसके बावजूद आज हम परिधान से लेकर खान-पान, ज्ञान से लेकर सम्मान, उत्पादन से लेकर उपभोग, और समझने से लेकर विचारने तक हर चीज में पश्चिमी तौर-तरीकों से ग्रस्त हैं। भारतीय संस्कृति पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका रखती है। मानव तथा प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता कायम किया गया है, जो पूर्णतः वैज्ञानिक तथा संतुलित है। हमारे शास्त्रों में पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, झरने, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियां, सरोवर, वन, मिट्टी, घाटियों यहाँ तक कि पत्थर भी पूज्य हैं और उनके प्रति स्नेह तथा सम्मान की बात कही गई है। हमारा यह चिन्तन पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये सार्थक तथा संरक्षण के लिये बहुमूल्य है।
पर्यावरण संबंधी भारतीय चिन्तन
भारत की जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी अपनी संस्कृति को पूज्य तथा विश्वसनीय मानता है। हमारे देश में अनेक तीर्थ स्थानों को पवित्र तथा त्योहारों को मनाने की परम्परा आज भी विद्यमान है। सभी दिन तथा त्योहार तीर्थ प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित हैं। हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक तीर्थों की श्रृंखला सी बनी हुई है। इस पवित्र वातावरण में मनुष्य प्रवेश करके निष्पाप हो जाता है। इस तरह की यात्रा के पीछे यह प्रावधान रखा गया कि मानव विभिन्न जगहों की भौगोलिकता, पर्यावरण का ज्ञान, मनोरंजन के स्थल, अभ्यारण्य, अरण्य, सरोवर, झीलों के शुभ दर्शन कर सकते हैं। इससे लोगों के रहन-सहन, जीवनचर्या और जीवन-यापन करने के तौर-तरीकों का बोध होता है और अनेकता में एकता का आभास मिलता है। साथ ही मानव नैसर्गिक सौन्दर्यता से प्रभावित होता है और उसे मानसिक शान्ति की अनुभूति होती है।
हमारी संस्कृति पर्यावरण संरक्षण प्रधान रही है, जो प्रदूषण पर विराम लगाती है और आध्यात्मिक मनोविज्ञान को स्वीकार करती है और स्पष्ट करती है कि मानव के प्राणों की सुरक्षा तथा पवित्रता की सुरक्षा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा पर निर्भर करती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार जिस मनुष्य को आध्यात्मिक अनुभूति हो जाती है तो वह अल्प साधनों से अपने हितों की पूर्ति कर सकता है, वह हर तरह से सामाजिक तथा आर्थिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। ऊंच-नीच के भेदभाव से ऊपर उठ जाता है। आज जरूरत इस बात की है कि मानव अपनी शक्ति को देशहित में सुदृढ़ बनाए और नैतिक मूल्यों को समझे तथा नैतिक अनुशासन से नियमबद्ध हो, तभी उसकी भौतिकतावादी प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि इस तरह के कार्य को सम्पन्न करने के लिये किसी विशेष अध्ययन तथा चिन्तन की आवश्यकता नहीं होती है।
कालिदास, सूरदास, रसखान, तुलसीदास, कबीरदास ने किसी संस्था से शिक्षा प्राप्त नहीं की, लेकिन अपनी रचनाओं में प्रकृति को इस तरह चित्रित किया कि इसके विनाश की बात सोची भी नहीं जा सकती। कालिदास ने पर्यावरण संरक्षण के विचार को मेघदूत तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम में दर्शाया। रामायण तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों, उपनिषदों में वन, नदी, जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों की भूमिका का वर्णन है। ये कृतियाँ जितनी तत्कालीन समाज में लोकप्रिय रही होंगी, उससे भी कहीं अधिक आज की व्यवस्था के अनुरूप और न्यायसंगत हैं। अन्तर विरोध इस बात का है कि तब भारतीय नैतिक अनुशासन अन्तर्मुखी तथा आत्मसंयम और त्याग पर बल देता था और दूसरों को समाज (पेड़-पौधे, जीव-जन्तु) तथा उन पर शासन एवं अधिकार करने का समर्थन नहीं करता था। इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने की आत्म प्रेरणा दी जाती थी कि चिन्तन तथा मनन द्वारा नैतिक उत्साह और अन्तर्दृष्टि प्राप्त की जाए, जिससे बाह्य शक्तियों पर अत्यधिक दबाव न डाला जा सके तथा अपने ऊपर विजय पाई जाए। महाभारत की एक कथा के अनुसार भारतीय ऋषियों ने राक्षसों का सर्वनाश करने के लिये अपनी अस्थियों को भी दान स्वरूप दे दिया था। खेद की बात है, आज हम अपने अनन्त स्वार्थों की पूर्ति के लिये किसी अन्य सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होकर पूँजी और विकास को केन्द्र बिन्दु या जीवन का प्रमुख आधार मान बैठे हैं और अपने प्राणों के रक्षक पर्यावरण को खत्म कर रहे हैं, उसे प्रदूषित कर रहे हैं।
पर्यावरण संरक्षण तथा शास्त्र
रामायण, महाभारत, गीता, वायु-पुराण, स्कन्दपुराण, भविष्य पुराण, वराहपुराण, ब्रह्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, मत्स्यपुराण, गरुणपुराण, श्री विष्णुपुराण, भागवतपुराण, श्रीदेवी भागवत पुराण वेद, उपनिषद तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थ, पेड़-पौधे, जीव-जन्तुओं पर दया करने की सीख देते हैं। मानसिक शान्ति, शारीरिक सुख, इन सबकी पूर्ति के साधन प्राकृतिक सम्पदा ही है. गेहूँ, जौ, तिल, चना, चन्दन, लाल पुष्प, केसर, खस, कमल, ताम्बूल, श्वेतपुष्प, बांस, मिट्टी, फल, तुलसी, हल्दी, पीत-पुष्प, शहद इलाइची, सौंफ, उड़द, काले-पुष्प, सरसों के फूल, मुलेठी देवदारू, बिल्व वृक्ष की छाल, आम, पला, खैर, पीपल, गूलर, दूब, कुश आदि को संरक्षित रखने के उद्देश्य से इन्हें किसी दिन, त्यौहार, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से जोड़ा गया है। औषधि के रूप में फलों तथा जड़ी-बूटियों की रक्षा करने की बात कही गयी है और इन्हें घरों के निकटस्थ लगाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने की सलाह दी गयी है। जैसे- अंगूर, केला, अनार, सेव, जामुन, प्याज, लहसुन, गाजर, मूली, नींबू, अदरक, आंवला, घिया, बादाम, आम, टमाटर, अखरोट, अजवाइन, अनानास, असगन्द, गिलोय, तम्बाकू, तरबूज, तुलसी, दालचीनी धनिया, पुदिना, संतरा, पान, पीपल, बबूल, ब्राह्मीबूटी, कालीमिर्च, लालमिर्च, लौंग, हरड़, बहेड़ा आदि अनेक बूटियों का प्रयोग करने से मनुष्य निरोग रह सकता है।
प्रकृति का महत्त्व
इमानि पंचमहाभूतानि पृथिवीं, वायुः, आकाशः, आपज्योतिषि
वेदों के अनुसार ब्रह्मांड का निर्माण पंचतत्व के योग से हुआ है, जिनमें पृथ्वी, वायु, आकाश, जल एवं अग्नि सम्मिलित है.
वेदों में पृथ्वी को माता और आकाश को पिता कहा गया है.
ऋग्वेद के अनुसार – द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्
अर्थात् आकाश मेरे पिता हैं, बंधु वातावरण मेरी नाभि है, और यह महान पृथ्वी मेरी माता है।
अथर्ववेद में भी पृथ्वी को माता के रूप में पूजने की बात कही गई है।
अथर्ववेद के अनुसार – माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः
भारतीय संस्कृति में प्रकृति के विभिन्न अंगों को देवता तुल्य मानकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। भूमि को माता माना जाता है। आकाश को वायु देव के रूप में पूजा जाता है.य। वृक्षों में पीपल, पंचवटी आदि की पूजा होती है। घरों में तुलसी को पूजने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। नदियों को माता मानकर पूजा जाता है। कुंआ पूजन होता है. अग्नि और वायु के प्रति भी लोगों के मन में श्रद्धा है।
इतना ही नहीं वेदों में सभी जीवों की रक्षा का भी कामना की गई है। ऋग्वेद के अनुसार – पिता माता च भुवनानि रक्षतः
जल जीवन के लिए अति आवश्यक है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि, यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम्
अर्थात – हे जल देवता, मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे मुझसे दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो, मेरे किसी कृत्य से किसी को कष्ट हुआ हो अथवा मैंने किसी को अपशब्द कहे हों, अथवा असत्य वचन बोले हों, तो वह सब भी दूर बहा दो।
जीवन के लिए वायु अति आवश्यक है। वेदों में वायु के महत्व का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद के अनुसार – वायुर्ड वा प्राणो भूत्वा शरीरमाविशत्
वेदों में वायु का शुद्धता पर बल देते हुए कहा गया है कि जीवन के लिए शुद्ध एवं प्रदूषण रहित वायु अति आवश्यक है।
वात आ वातु भेषतं शंभु मयोभु नो हृदे
वेदों में वृक्षों की महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है. वृक्षों में देवताओं का वास माना जाता है.
मूलतो ब्रम्हरूपाय मधयतो विष्णुरूपिणें
अग्रत: शिवरूपाय वृक्षराजाए ते नम:
अर्थात – वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु और शिरोभाग में शिव का वास होता है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में शुद्ध वायु, शुद्ध पानी, शुद्ध मिट्टी इन चीजों को मुख्य आधार मानकर चिकित्सा की जाती है और असाध्य रोगों का इलाज इनसे कर दिया जाता है। गंगा, यमुना, झीलें, सरोवर, तालाब, झरने, नाले के पानी से नहाने पर निष्पाप तथा चर्म रोग दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए कि मनुष्य इनकी साफ-सफाई तथा उचित रख-रखाव की व्यवस्था को बनाए रखे। वन्य जीव-जन्तुओं का भी हमारे शास्त्रों में बहुत अच्छी तरह से वर्णन प्रस्तुत किया गया है, ज्ञान तथा नैतिक शिक्षा पर आधारित पंचतंत्र की कथाएं, जातक कथाएं अनेक ग्रन्थ जीव-जन्तुओं की उपमा से भरे पड़े हैं। इनमें से कई को देवी-देवताओं के वाहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। माँ श्री दुर्गा का वाहन शेर, श्री शिव भगवान जी वाहन बेल, श्री इन्द्र जी का एरावत हाथी, श्री गणेश जी का चूहा, सर्प, हंस, हनुमान जी, भालू आदि ऐसे ही प्रतीक हैं।
मनुष्य के जीवन को सफल बनाने में तथा उसके अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिये औषधि उदर पूर्ति के लिये कन्दमूल फल, शरीर ढकने के लिये वस्त्र, कारखाने चलाने हेतु कच्चामाल, भूमि को उपजाऊ तथा भू-स्खलन से बचाने में पेड़ पौधों की भूमिका को कदापि नकारा नहीं जा सकता। कार्बनडाइऑक्साइड को अमृत (ऑक्सीजन) में परिवर्तित पेड़-पौधे ही करते हैं। पूजा-हवन, यज्ञ करने में पुष्प समिधाओं की परम आवश्यकता होती है। पेड़ों में अनेक देवी-देवताओं का वास बतलाया गया है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं पेड़ों में स्वयं पीपल का वृक्ष हूँ, तुलसी का पौधा स्वयं विष्णुप्रिया के रूप में पूज्यनीय है। चन्दन की लकड़ी चिता से लेकर माथे की शोभा तक बढ़ाता है और अपनी शीतलता के लिये अतुलनीय है। हवन यज्ञ में प्रयोग आने वाली समिधाओं जैसे- आम, चन्दन, पीपल, पाकड़ा, देवदार, बेल, नीबू, धतूरा इनके फल टहनियों, छाल से आहुति दी जाती है।
भगवान राम ने दण्डक वन, कृष्ण ने वृन्दावन, पाण्डवों ने खाण्ड-वन, शौनकादि ऋषियों ने नैमिषारण्य वन, इन्दु ने नन्दन वन का निर्माण कराया। तुलसीदास जी वनों से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने जीवन काल के चौथे चरण में वनागमन को आवश्यक माना है। भगवान शंकर की पूजा अर्चना के लिये बेल-पत्तियों की परम आवश्यकता होती है। मत्स्यपुराण की जानकारी के अनुसार दस कुँओं के बराबर एक बाबड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र, दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। शास्त्रों में ही यह बतलाया गया है कि सौ पुत्रों से उतना सुख नहीं मिलता, जितना एक वृक्ष लगाने से होता है।
मत्स्य पुराण में इस बात का भी उल्लेख है कि शास्त्र, जलाशय, वृक्ष, मन्दिर ये चारों अमर हैं. मनुष्य के मर जाने के पश्चात भी यह जीवित शरीर कहे जाते हैं। सुभाषितावली में कहा गया है – लम्बे फलों ने मृगों को, पुष्पों ने भ्रमरों को, फलों ने पक्षियों को छाया ने गर्मी से पीड़ितों को, सुगन्ध ने वायु को सदा आनन्दित किया है। चाणक्य जैसे निपुण नीतिज्ञ भी साम्राज्य की स्वच्छता का आधार पर्यावरण को मानता है और उसने पशुओं से सीख लेने का आग्रह भी किया है। सिंह से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कुत्ते से छः गदहे से तीन गुण ग्रहण करने चाहिए।
हमारी संस्कृति पर्यावरण के संरक्षण में नियमबद्ध तथा वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का सूत्र प्रदान करती है। इसमें कहीं भी संकीर्णता, धर्मान्धता, घृणा, पृथकता आदि दुर्गुणों के लिये कोई स्थान नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि हमें निष्ठापूर्वक नैतिक अनुशासन की समस्त जन समुदाय को शिक्षा देनी चाहिए, जिससे पर्यावरण के प्रति प्रेम तथा उत्साह की भावना को प्रबल बनाया जा सके। हमारे शास्त्र किसी भी उद्देश्य को ध्यान में रखकर क्यों न रचे गए हों, एक बात स्पष्ट है कि आज यह व्यवस्था खास तौर पर पर्यावरण संरक्षण के लिये एक नयी दिशा तथा प्रदूषण से उत्पन्न चुनौतियों को जड़ से समाप्त करने में सक्षम है। पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा बचपन से ही आरम्भ की जाए और लोगों के मन में विश्वास कायम किया जाए, जब एक अबोध बालक अपने आस-पास की नैसर्गिक सुन्दरता से अति प्रसन्न होता है, तो एक परिपक्व मस्तिष्क उसके विनाश की बात क्यों सोचता है? इसलिए हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हम लोगों को ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक सुन्दरता का अनुसरण कराएं और इससे सम्बन्धित ज्ञान दें और उन्हें इस बात से परिचित कराएं कि हम चारों ओर से पर्यावरण के द्वारा प्रदान किये गये सुरक्षा कवच से घिरे हैं तो हमें इस कवच में सुराख करने का कभी भी नहीं सोचना चाहिए, अपितु उसे मजबूती प्रदान करनी चाहिए।