जबलपुर का दुर्गोत्सव

जबलपुर का दुर्गोत्सव

प्रशांत पोळ

जबलपुर का दुर्गोत्सवजबलपुर का दुर्गोत्सव

जबलपुर का दुर्गोत्सव अपने आप में अनूठा है। पूरे देश में रामलीला, दुर्गोत्सव और दशहरा जुलूस का अद्भुत और भव्य संगम शायद अकेले जबलपुर में होता है।

भारत में 1857 का क्रांति युद्ध समाप्त होने के कुछ वर्ष बाद, अंग्रेजों ने बॉम्बे – हावड़ा रेल लाइन का काम शुरू किया। 1870 में यह रेल लाइन प्रारंभ हुई। जबलपुर इस लाइन का महत्वपूर्ण स्टेशन / जंक्शन था। इस काम के सिलसिले में अनेक बंगाली परिवार जबलपुर में स्थाई हुए और 1872 में पहली बार एक नई ऐतिहासिक परंपरा आरंभ हुई। बृजेश्वर दत्त जी के यहां दुर्गा देवी की मिट्टी की प्रतिमा स्थापित की गई। तीन वर्ष के पश्चात यह उत्सव अंबिकाचरण बंदोपाध्याय (बॅनर्जी) जी के यहां स्थानांतरित हुआ। ठीक आठ वर्ष के बाद, अर्थात 1878 में सुनरहाई में कलमान सोनी जी ने बुंदेली शैली की दुर्गा प्रतिमा स्थापित की। मिन्नीप्रसाद प्रजापति इसके मूर्तिकार थे।

उन दिनों गढा यह एक परिपूर्ण और व्यवस्थित बसावट थी। गढावासियों ने इस उत्सव को हाथों हाथ लिया। जबलपुर के बाकी मोहल्लों में यह उत्सव प्रारंभ हुआ। देवी की मूर्ति बनाने जबलपुर के शिल्पी (कलाकार) तो सामने आए ही, साथ ही जबलपुर जिस ‘सीपी एंड बरार’ प्रांत का हिस्सा था, उसकी राजधानी नागपुर से भी मूर्तिकार आने लगे। धीरे – धीरे यह दुर्गोत्सव भव्य स्वरूप में मनाया जाने लगा। मूर्तियों के विसर्जन के लिये दशहरा विसर्जन जुलूस प्रारंभ हुआ, जिसने इतिहास रच दिया..!

किसी जमाने में जबलपुर का दशहरा चल समारोह, जिसमें दुर्गा प्रतिमाएं भी विसर्जन के लिये शामिल होती थीं, अत्यंत भव्य होता था। चौबीस घंटे जुलूस चलता था। सवा सौ के लगभग प्रतिमाएं होती थीं। किंतु कालांतर में शहर बड़ा होता गया। उसमें उपनगर जुड़ते गए, तो स्वाभाविकतः दशहरा चल समारोह का विकेंद्रीकरण होता गया। इस समय मुख्य चल समारोह के साथ ही गढा, सदर, कांचघर, रांझी आदि क्षेत्रों में भव्यता के साथ चल समारोह निकलते हैं। दशहरे का उत्साह और इस उत्सव की उमंग पूरे जबलपुर क्षेत्र मे समान रूप से फैली हुई दिखती है।

जबलपुर उत्सव प्रिय शहर है। इस शहर ने उत्तर प्रदेश की रामलीला को अपना लिया। दुर्गोत्सव के प्रारंभ होने से भी पहले, अर्थात सन 1865 में मिलौनीगंज मे गोविंदगंज रामलीला समिति द्वारा रामलीला प्रारंभ हुई, जो आज तक अविरत चल रही है। मशाल और चिमनी के प्रकाश में प्रारंभ हुई यह रामलीला आज अत्याधुनिक तकनिकी का प्रयोग कर रही है, इसीलिये आज भी प्रासंगिक है। यहॉं भक्तों की भीड़ खिंचती है। यह रामलीला, पारंपारिक एवं शुद्ध स्वरूप में मंचित होती है। इसके पात्र भी मंचन के दिनों में पूर्ण सात्विक जीवन जीते हैं।

गोविंदगंज की देखा देखी, गढा, सदर, घमापुर, रांझी आदि अनेक स्थानों पर आज भी रामलीला का मंचन उसी भक्तिभाव से होता है।

सप्तमी से लेकर दशहरे तक, जबलपुर की रौनक और जबलपुरवासियों के उत्साह की कोई तुलना हो ही नहीं सकती। लगभग 600 से 700 भव्य मूर्तियों की प्रतिष्ठापना की जाती है। पहले नागपुर के मूर्तिकारों द्वारा प्रमुख उत्सव समितियों में मूर्तियॉं बनाई जाती थीं। पुराना बस स्टैंड (सुपर बाजार) की मूर्ति मूलचंद द्वारा निर्मित होती थी, तो शंकर घी भंडार (सब्जी मंडी), गल्ला मंडी और हरदोल मंदिर (गंजीपुरा) की प्रतिमाएं, सुधीर बनाते थे। अनेक वर्षों पहले, सब्जी मंडी मे रखी गई, सिंह के रथ पर सवार, सुधीर द्वारा बनाई गई, मां जगतजननी की प्रतिमा आज भी अनेकों के स्मरण में होगी। नागपुर की इस परंपरा को अभी तक जीवित रखा है शरद इंगले ने। दीक्षितपुरा की हितकारिणी शाला में स्थापित होने वाली प्रतिमा उन्हीं के द्वारा बनाई जाती है। कुछ वर्ष पहले तक, शरद और वसंत इंगले यह भाई घमापुर, चोर बावली (आज का ब्लूम चौक) और सुभाष टॉकीज की प्रतिमाएं भी बनाते थे। मूलचंद, सुधीर, शरद इंगले ये सभी कलाकार, नागपुर के चितार ओल से आते थे।

किंतु जबलपुर के दुर्गोत्सव में जलवा होता था तो कलकत्ता से आने वाले जगदीश विश्वास का। बंगाली शैली में बनी अनेक प्रतिमाएं उनके तथा उनके भाई के द्वारा बनाई जाती थीं। मूलतः, लगभग पचपन – साठ वर्ष पूर्व उन्हें टेलिग्राफ वर्कशॉप की दुर्गा उत्सव समिति ने बुलाया था। दुर्गोत्सव के लगभग एक महीने पहले आकर जगदीश विश्वास और उनकी टीम, टेलिग्राफ कॉलोनी की डिस्पेंसरी में मूर्ति बनाना प्रारंभ करती थी। उन दिनों उनकी दो मूर्तियां भव्यता की श्रेणी में आती थीं। एक – टेलिग्राफ कॉलोनी की और दूसरी शारदा टॉकीज, गोरखपुर की। लगभग सारी मूर्तियां दुर्गा जी की होती थीं। बंगाली पंडालों के लिये गणेश, सरस्वती, कार्तिकेय इत्यादि की भी मूर्तियां रहती थीं। अपवाद एक था। कछियाना की समिति के लिये, लेटे हुए शंकर पर खड़ी महाकाली की मूर्ति वे बनाते थे।

धीरे – धीरे जबलपुर के मूर्तिकार अपनी कला में निखार लाते गए। बचई जैसे कलाकार, महाराष्ट्र स्कूल के सामने रखी गई प्रतिमा में अपनी कला का अविष्कार दिखाते रहे। किंतु अनेक मूर्तिकार परंपरागत शैली में सुंदर प्रतिमाएं बनाते रहे। शीतलामाई के पास आज भी बड़ी संख्या में शानदार प्रतिमाएं बनती हैं।

कुछ उत्सव समितियों का जनमानस में श्रद्धाभाव के साथ, अटूट स्थान बन गया है। गढाफाटक तथा पड़ाव की महाकाली आस्था की अद्भुत प्रतीक बन गई हैं। सुनरहाई तथा नुनहाई की पारंपारिक बुंदेली शैली की प्रतिमाएं जबलपुर की शान हैं। जबलपुर का गौरव हैं। सुनरहाई की देवी, ‘नगर सेठानी’ कहलाती हैं। सुनरहाई के ही आगे एक भव्य देवी प्रतिमा स्थापित की जाती है, जिसमें किसी पौराणिक कथा की शानदार प्रस्तुति होती है। मोहन शशी जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की लेखनी से उतरी यह कथा, भक्तों का मन मोह लेती है।

उपनगरों की देवी प्रतिमाएं भी आकर्षण का केंद्र बन रही हैं। मंडला रोड पर बिलहरी में स्थापित दुर्गा प्रतिमा अनेक वर्षों से भव्यता और झांकियों के लिये प्रसिद्ध है। रांझी, गढा और सदर की भी अनेक प्रतिमाएं आकर्षण का केंद्र रहती हैं।

सप्तमी से लेकर विजया दशमी (दशहरे) तक, सारा जबलपुर मानों सड़कों पर होता है। शहर का कोना – कोना रोशनी से जगमगाता रहता है। आजू-बाजू के गांव वाले भी इस दुर्गोत्सव और दशहरे का आनंद लेने शहर आते हैं। दशहरे के एक दिन पहले, अर्थात नवमी के दिन, पंजाबी दशहरा संपन्न होता है। पहले राईट टाऊन स्टेडियम में जब यह होता था, तो इसकी भव्यता का आंकलन करना भी कठिन होता था। बच्चों के लिये तो यह विशेष आकर्षण का केंद्र रहता था।

जबलपुर भारत की सारी संस्कृतियों को समेटता हुआ शहर है। यहॉं के सारे लोग बड़े उत्साह, उमंग, उर्जा और गर्व से दुर्गोत्सव व दशहरा मनाते हैं। यह सभी का उत्सव है। इसलिये एक ओर जहां गरबा चलता रहता है, तो दूसरी ओर सिटी बंगाली क्लब और डी बी बंगाली क्लब में बंगाली नाटकों का मंचन चलता है। छोटा फुआरा, गढा, घमापुर, सदर, गोकलपुर, रांझी आदि स्थानों पर रामलीला का मंचन होता रहता है, तो दत्त मंदिर में मराठी समाज अष्टमी का खेल खेलता है। सैकड़ों देवी पंडालों में देवी पूजा, सप्तशती का पाठ, होम-हवन होता रहता है, तो जगह – जगह सड़कों पर भंडारा चलता रहता है।

यह जबलपुर है। एमपी अजब है, तो हमारा जबलपुर गजब है। इस उत्सव के रंग में रंगने के लिये अगले वर्ष, इन दिनों जबलपुर अवश्य आइये..!
आपका स्वागत है।

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