हिन्दी सिनेमा में भगवान राम तब और अब
डॉ. शुचि चौहान
हिन्दी सिनेमा में भगवान राम तब और अब
15 अप्रैल 1911 की बात है। धुंडीराज गोविंद फाल्के, जो बाद में भारतीय सिनेमा के जनक कहलाए, अपने परिवार के साथ मुंबई के अमेरिका इंडिया पिक्चर पैलेस में अमेजिंग एनीमल्स फिल्म देखने गए थे। लेकिन अगले दिन ईस्टर होने के कारण थिएटर में फ्रांसीसी निर्देशक ऐलिस गाई ब्लाचे की फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट दिखायी जा रही थी। फिल्म को देखते समय फाल्के अपने आराध्य भगवान राम और कृष्ण पर ऐसी ही फिल्म बनाने की कल्पना कर रहे थे। फिल्म पूरी होते होते तो शायद उन्होंने निश्चय ही कर लिया था। अपने निश्चय को पूरा करने के लिए बाद में उन्होंने काफी मेहनत की और 1913 में एक फिल्म बनायी राजा हरिश्चंद्र। यह मूक फिल्म थी, लेकिन जनमानस पर छा गई। उन्होंने अपने 19 वर्षों के करियर में सत्यवान सावित्री, श्रीकृष्ण जन्म, कालियामर्दन, लंका दहन जैसी 95 फिल्में बनाईं। रामायण के एक प्रसंग पर 1917 में बनी उनकी फिल्म लंका दहन तो इतनी लोकप्रिय हुई कि एक प्रदर्शक को सुबह 7 बजे से आधी रात तक हर घंटे फिल्म दिखानी पड़ी। लंका दहन रामायण पर बनी पहली ऐसी फिल्म थी, जिसने सिनेमाघरों को मंदिर बना दिया था। लोग लंका दहन देखने जाते तो सिनेमाघरों के बाहर जूते–चप्पल उतारकर जाया करते थे और हाथ जोड़कर बैठा करते थे, मानो मंदिर में भगवान की शरण में बैठे हों। यह वह समय था, जब हिन्दी सिनेमा हिन्दू महाकाव्यों व ग्रंथों से प्रेरणा लेता था। लेकिन 1931 में फिल्म आलमआरा ने फिल्मों की दशा और दिशा ही बदल दी। यह एक बोलती फिल्म थी। फिल्म के लेखक जोसेफ डेविड व मुंशी जहीर थे, तो संगीतकार फिरोजशाह मिस्त्री और बहराम मिस्त्री। इसका निर्देशन अर्देशिर ईरानी ने किया था।
ईरानी के दादाजी / पिताजी मूलत: पर्शिया (ईरान) से थे।मजहबी उत्पीड़न से बचने के लिए परिवार भारत आ गया था। लेकिन था पूरा सेक्युलर। फिल्म के संवादों में उर्दू शब्दों की भरमार थी और गाने एकेश्वरवाद से प्रेरित थे। इसके बाद एक के बाद एक अनेक फिल्में आईं, जिनमें धीरे धीरे एक ट्रेंड विकसित हुआ, भाषा उर्दू होती गई और हिन्दू समाज व आस्थाओं की आलोचना करने वाले सामाजिक नाटक प्रमुख विषय बनते गए।
छलिया, आवारा, राम तेरी गंगा मैली, कल आज कल, सत्यम शिवम सुंदरम, संगम, जागते रहो, धरम करम, बरसात और कन्हैया आदि कुछ ऐसी ही फिल्में हैं।
छलिया में एक गर्भवती हिन्दू महिला है, जो विभाजन के दौरान पाकिस्तान में रह जाती है, जबकि उसका परिवार जल्दबाजी में भारत आ जाता है। अब्दुल रहमान नामक एक दयालु पठान उसे बचाता है और 5 वर्षों तक अपने घर में बिना उसकी ओर देखे उसकी देखभाल करता है, उसके बेटे को अपने बेटे की तरह पालता है। जब महिला भारत आती है तो उसके माता पिता और भाई उसे पहचानने से मना कर देते हैं, पति महिला के बच्चे द्वारा अपना नाम अनवर और पिता का नाम रहमान बताने पर महिला पर व्याभिचार का शक करते हुए अपनाने से इन्कार देता है। एक नास्तिक छलिया जो यह सब देख रहा है, उसी क्षण वहां से गुजरने वाले भगवान राम के जुलूस को देखकर मुस्कुराता है। लोग गा रहे हैं – “गली गली सीता रोये….।“
आवारा में एक जज है, जिसका नाम रघु है। रघु की पत्नी लीला का अपहरण जग्गा डाकू कर लेता है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि लीला गर्भ से है, तो वह उसे छोड़ देता है। जब वह घर पहुंचती है तो परिवार लीला के चरित्र पर शक करता है। रघु स्वयं भी उलझन में है कि उसे अपनाए या न अपनाए, तभी रघु की भाभी ताना मारती है इसके पेट में संपोला पल रहा है, क्या तुम भगवान राम से भी बढ़कर हो, उन्होंने भी सीता का परित्याग कर दिया था गॉंव वालों के कहने पर।
हिन्दी सिनेमा का यह वह दौर था, जब फिल्मों में भगवान श्री राम पर सूक्ष्मता से उंगली उठाई जा रही थी, उन्हें सामाजिक अन्याय के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार के रूप में चित्रित किया जा रहा था। यह राम के चरित्र को पूज्य से विवादास्पद में बदलने का प्रयास था।
जैसे ही 1960 के दशक के सामाजिक नाटकों ने 1970 और 1980 के दशक की मसाला फिल्मों के लिए रास्ता बनाया, राम के नाम का पूरी तरह से मजाक उड़ाया जाना एक सामान्य बात हो गई। चोरों और गुंडों को चित्रित करने वाले मुख्य पात्रों को ‘राम नाम जपना पराया माल अपना‘ का जाप करते हुए दिखाया गया, जैसे कि फिल्म नमक हलाल में अमिताभ बच्चन।
फिल्म मुकद्दर का फैसला (1987) में राज बब्बर को भगवाधारी साधु के भेष में “राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट” का जाप करते हुए बैंक लूटते हुए दिखाया गया है।
2001 में राजकुमार संतोषी की फिल्म आई लज्जा। जिसमें दहेज, घरेलू दुर्व्यवहार और महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराधों जैसी सामाजिक बुराइयों से पीड़ित चार हिन्दू महिलाओं की कहानी दर्शायी गई। इन महिलाओं के नाम थे – रामदुलारी, वैदेही, जानकी व मैथिली, जो मॉं सीता के ही दूसरे नाम हैं और अय्याश पुरुषों के नाम रखे गए रघु और पुरुषोत्तम। एक दृश्य में, फिल्म में मंच पर उपस्थित रामलीला नाटक में सीता की भूमिका निभा रही माधुरी दीक्षित, अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा मांगने के लिए अपने पति राम को डांटती हैं।
2010 में आयी रावण में तो रावण का महिमामंडन करते हुए उसे नायक ही बना दिया गया।
2013 में, फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली ने मुख्य रोमांटिक जोड़ी का नाम राम और लीला रखने के बाद अपनी मसाला फिल्म का नाम राम–लीला रखने की मांग की। फिल्म के प्रमोशनल पोस्टर में राम (रणवीर सिंह) को आपसी वासना में लीला (दीपिका पादुकोण) का ब्लाउज खींचते हुए दिखाया गया। हिन्दू समूहों के विरोध के बाद फिल्म का नाम बदलकर गोलियों की रासलीला राम–लीला कर दिया गया।
फिर आयी आदिपुरुष। जिसने रचनात्मकता के नाम पर हिन्दू आस्था की धज्जियां उड़ा दीं। कहा गया कि फिल्म संस्कृत महाकाव्य रामायण पर आधारित है, लेकिन इसमें मुख्य पात्रों को जो लुक दिया गया, कॉस्ट्यूम पहनाए गए और उनसे डायलॉग बुलवाए गए, वे बड़े ही अशोभनीय थे। एक दृश्य में हनुमान जी कहते हैं– कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का, जलेगी भी तेरे बाप की। दूसरे दृश्य में अशोक वाटिका के रखवाले हनुमान जी से कहते हैं– तेरी बुआ का बगीचा है क्या, जो हवा खाने चला आया। एक दृश्य में जब हनुमान जी मॉं सीता से मिलकर लौटते हैं और रामजी के पास जाते हैं तो राम उनसे पूछते हैं कि रावण से आपकी क्या बात हुई। इस पर वह कहते हैं, हमने उनसे कह दिया कि अगर हमारी बहनों को हाथ लगाओगे तो हम तुम्हारी लंका लगा देंगे।
हाल ही में एक फिल्म आई है अन्नपूर्णी, जो नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है। इस फिल्म के एक दृश्य में हीरो लड़की को मांस खाने के लिए प्रेरित करता है। वह वाल्मिकी रामायण का उदाहरण देकर कहता है कि वनवास के समय श्रीराम, लक्ष्मण, सीता ने भी जानवर मारकर खाया था।
आज जब पूरा विश्व राम मंदिर बनने की खुशी में डूबा है, तब भी सनातन विरोधी अपने एजेंडे से बाज नहीं आ रहे। विडम्बना यह है कि हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा अवार्ड आज भी दादा साहब फाल्के के नाम पर दिया जाता है, लेकिन इस इंडस्ट्री ने उनकी आत्मा का खून कर दिया है। बॉलीवुड में सब कुछ है बस नहीं है तो दादा साहब फाल्के के संस्कार और उनका दृष्टिकोण।
लेकिन अब समय बदल गया है। आदिपुरुष के बेहूदगेपन पर समाज की तीखी प्रतिक्रिया हुई। लोगों को भगवान राम को मसाला फिल्मों के किरदार के रूप में देखना आहत कर गया।बॉलीवुड को समझना होगा कि रचनात्मकता के नाम पर आस्था से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। भगवान राम आज भी जनमानस की आत्मा हैं। धारावाहिक रामायण इसका उदाहरण है। वर्ष 1987 में यह जितना लोकप्रिय हुआ, कोविडकाल में भी लोगों ने उसे उतनी ही श्रद्धा से देखा। राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल को लोग भगवान राम के रूप में ही देखने लगे थे, उनके पॉंव छूते थे। दूसरी ओर आदिपुरुष और अन्नपूर्णी जैसी फिल्में मात्र सनातन विरोधी एजेंडा बनकर रह गईं। अब समय आ गया है जब बॉलीवुड रचनात्मकता और आस्था के बीच के अंतर को समझे, जनता यह अंतर समझ गई है।
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लेख बहुत अच्छा लगा।