राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श- स्वामी विवेकानंद

राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श- स्वामी विवेकानंद

राष्ट्रीय युवा दिवस विशेष

राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श- स्वामी विवेकानंदराम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श-  स्वामी विवेकानंद

जयपुर। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श हैं। राम… वीरता के युग के प्राचीन आदर्श, सत्य और नैतिकता के अवतार, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पिता और सबसे बढ़कर, आदर्श राजा हैं। इन पंक्तियों से सहज ही यह स्पष्ट होता है कि विवेकानंद की दृष्टि में राम और सीता का चरित्र कैसा था। उनका मानना था कि ‘जहां राम है, वहां काम नहीं है, जहां काम है, वहां राम नहीं है। रात और दिन कभी एक साथ नहीं रह सकते।’ इसी संबंध में प्राचीन ऋषियों की वाणी हमें उद्घोषित करती है, ‘यदि आप ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको ‘काम-कांचन’ यानी वासना और अधिकार का त्याग करना होगा। आज पूरी दुनिया रामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह की तैयारियां कर रही है। 22 जनवरी को पूरा विश्व इस भव्य एवं दिव्य समारोह का साक्षी बनेगा। ऐसे में स्वामी विवेकानंद का उक्त कथन सहज प्रासंगिक हो जाता है।

राजस्थान से भी स्वामी विवेकानंद का गहरा संबंध रहा है। स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवनकाल में राजस्थान की तीन यात्राएं की थीं। ये यात्राएं उनके जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों में सम्मिलित रहीं। यात्रा के समय स्वामी जी ने सीकर में ‘जीण माता’ के दर्शन भी किए। चाहे वह नरेंद्र से विवेकानंद नाम मिलना हो या शिकागो सम्मेलन में धारण की गई राजस्थानी पगड़ी व भगवा पोशाक, उन्हें राजस्थान से ही प्राप्त हुए।

पहली बार विवेकानंद फरवरी 1891 में अलवर आए। अलवर में उन्हें श्री गुरु चरण नाम के एक डॉक्टर मिले, जिन्होंने स्वामी जी के आग्रह पर उनके रहने की व्यवस्था की। जहां उनके व्याख्यान सुनने मौलवी साहब सहित स्थानीय लोग भी आते थे। विवेकानंद जी से संवाद के बाद अलवर महाराजा मंगल सिंह का मूर्ति पूजा के प्रति दृष्टिकोण बदला, वे इसे मानने लगे। अलवर में जिस स्थान पर विवेकानंद जी ठहरे थे, उसे एक केंद्र के रूप में विकसित किया गया है, जहां अनेक सेवा कार्य आज भी चल रहे हैं।

मैं सब प्रकार के ‘विधि निषेध’ से ऊपर हूं-
स्वामी विवेकानंद अपनी यात्रा के अगले पड़ाव में 25 अप्रैल 1891 को  आबू पहुंचे। यहां पर एक मुसलमान वकील के घर में निवास के कारण खेतड़ी महाराजा अजीत सिंह के निजी सचिव द्वारा मुस्लिम के घर में रहने पर प्रश्न करने पर स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘मैं सन्यासी हूं, आपके सब प्रकार के विधि निषेध से ऊपर हूं, मैं अनुसूचित जाति के किसी बंधु के साथ भी भोजन कर सकता हूं। इससे भगवान के प्रसन्न ना होने का मुझे भय नहीं है क्योंकि यह शास्त्र द्वारा अनुमोदित है। इस प्रसंग का उल्लेख ‘राजस्थान में स्वामी विवेकानंद’ पुस्तक में मिलता है। स्वामीजी की इस बात यह भी स्पष्ट होता है वे सामाजिक समरसता के प्रबल पक्षधर थे।

पत्र में लिखा ‘मेरे अध्यापक’—
आबू में 4 जून 1891 को स्वामी विवेकानंद की भेंट खेतड़ी महाराजा अजीत सिंह से हुई। 07 अगस्त को स्वामीजी खेतड़ी पहुंचे, जहां उन्होंने लगभग पांच माह का प्रवास किया। खेतड़ी के राजपंडित नारायणदास व्याकरण के ज्ञाता थे। उनसे स्वामीजी ने ‘अष्टाध्यायी’ और ‘महाभाष्य’ का अध्ययन किया। विवेकानंद ने अमेरिका से एक पत्र लिखते समय नारायण दास के लिए ‘मेरे अध्यापक’ संबोधन का प्रयोग किया। विवेकानंद ने राजा अजीत सिंह जी को पदार्थ विज्ञान का अध्ययन भी करवाया तथा खेतड़ी में एक लैबोरेट्री स्थापित करवाई। महल की छत पर टेलीस्कोप लगाया गया, जिससे तारामंडल का अध्ययन हो सके।

जब अपनाया ‘विविदिषानन्द से विवेकानंद’ नाम—
स्वामी जी अपना नाम विविदिषानन्द लिखा करते थे। राजा अजीत सिंह जी ने एक दिन हंसते हुए कहा, ‘महाराज आपका नाम बड़ा कठिन है, बिना अटके साधारण लोगों की समझ में इसका अर्थ नहीं आ सकता। इसके अतिरिक्त अब तो आपका विविदिषा यानी ‘जानने की इच्छा’ का काल भी समाप्त हो चुका है।’ तब ‘मेरी समझ से आपके योग्य नाम है ‘विवेकानंद’..। उसी दिन से स्वामी जी ने अपना नाम विवेकानंद मान लिया।

मिसाल ‘मित्रता’ की—
वर्ष 1893 में शिकागो में होने वाले ‘धर्म सम्मेलन’ में जाने के लिए खेतड़ी महाराजा अजीत सिंह ने विवेकानंद के लिए सभी आवश्यक प्रबंध करवाए थे। इस पर विवेकानंद ने कहा था, ‘भारतवर्ष की उन्नति के लिए जो थोड़ा बहुत मैंने किया है वह खेतड़ी नरेश के न मिलने से न होता।’ 12 दिसंबर 1897 को ‘ब्रह्मवादी’ में दी गई स्वामी सदानंद की रिपोर्ट के आधार पर, स्वामी जी द्वारा लिखित एक पत्र में उल्लेखित है कि, ‘मैं और अजीत सिंह ऐसी दो आत्माएं हैं, जिनका जन्म एक दूसरे को सहायता करने के लिए हुआ है। हम दोनों एक दूसरे के पूरक और प्रपूरक हैं।’ जब अमेरिका से विवेकानंद लौटे तब तक महाराज अजीत सिंह के आग्रह पर उनका पुन: राजस्थान आना निश्चित हुआ। इस दौरान वे अलवर में लगभग छह दिनों के प्रवास के बाद जयपुर में खेतड़ी हाउस में रहे।

पुन: खेतड़ी आगमन पर लोगों ने जलाए दीपक—
राजस्थान में विवेकानंद पुस्तक की पृष्ठ संख्या 121 में इस बात का उल्लेख मिलता है कि, ‘स्वामी जी का इस बार खेतड़ी आना किसी उत्सव से कम नहीं था। वहां के लोगों में एक अलग ही उत्साह था। खेतड़ी में चारों ओर रोशनी की गई। तालाब की पेड़ियों पर, लोरिया घाटी में, घर के दरवाजों के आगे दीपक जलाए गए, भोपालगढ़ पर रोशनी की गई। स्वामी जी 23 दिसंबर 1897 में जयपुर के 10 दिन प्रवास के बाद 1 जनवरी को किशनगढ़ होते हुए जोधपुर गए। राजस्थान यात्राओं के दौरान वे पुष्कर भी गए।

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