महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के बरक्स सच्चे नायकों की पहचान
18 जून – महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान-दिवस विशेष
प्रणय कुमार
यह भारत-भूमि वीर-प्रसूता है। यहाँ बलिदान की गौरवशाली परंपरा रही है। हमें देश के लिए जीना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो मातृभूमि पर त्याग और बलिदान हेतु भी सदैव तत्पर रहना चाहिए। इसी में तरुणाई है, इसी में यौवन का असली शृंगार है।
एक ओर महारानी लक्ष्मीबाई का जीवन-चरित्र तो दूसरी ओर आज के कथित कूल ड्यूड किशोर-किशोरियों का शीत-घाम-वर्षा से मुरझा-मुरझा जाने वाला छुई-मुई सरीखा जीवन! कितना आश्चर्य है लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना के देश में ”क्या अदा, क्या जलवे तेरे” जैसे गीतों और मुहावरों पर मुग्ध होकर रीझ-रीझ उठने वाली पीढ़ियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं। कई बार तो लगता है कि आज पूरा देश ही पारो और देवदास हुआ जा रहा है। जो आयु संघर्षों-संस्कारों की आग में तपकर कुंदन बनने की होती है, उस आयु में आज की पीढ़ी तमाम आकर्षणों एवं सुविधाओं में फँसकर लक्ष्य-च्युत जीवन जीने को अभिशप्त है।
प्रसाधन-उद्योग ने पूरे देश को सौंदर्य-प्रतियोगिताओं का बाज़ार-सा बना दिया है। माँ-बहन-बेटियाँ-बहू जैसे संबोधन बाज़ार के लिए बेमानी हो गए हैं; बाज़ार ने स्त्रियों को केवल उत्पादों को परोसने वाले उपकरण की तरह प्रस्तुत किया है। महिला सशक्तीकरण के झंडाबरदारों ने बराबरी की प्रतिस्पर्द्धा कर स्वयं को भोग्या ही बनाया है।
कला व आधुनिकता के नाम पर निर्लज्ज खुलेपन व अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इन कथित कलाकारों की दृष्टि में ‘शीला’ जवान हो रही है तो ‘मुन्नी’ बदनाम; और घोर आश्चर्य है कि ऐसी जवानी व बदनामी पर ”वीर जवानों” का यह तरुण ”देश” लट्टू हुआ जा रहा है। वीरता व धीरता के स्थान पर ऐन्द्रिक कामुकता, सुविधावादिता या भीरुता हमारी पहचान बनती जा रही है। त्याग-तपस्या के स्थान पर भोगवाद की आँधी चल रही है। चौकों-छक्कों या ठुमकों-झुमकों पर मुग्ध पीढ़ी नकली सितारों में नायकत्व ढूँढ़ रही है। जबकि उन्हें वीरांगना लक्ष्मीबाई जैसे उज्ज्वल और धवल चरित्रों में वास्तविक नायकत्व की छवि देखनी चाहिए और बचपन से ही उनके आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए।
ज़रा कल्पना कीजिए, दोनों हाथों में तलवार, पीठ पर बच्चा, मुँह में घोड़े की लगाम; हजारों सैनिकों की सशस्त्र-सन्नद्ध पंक्तियों को चीरती हुई एक वीरांगना अंग्रेजों के चार-चार जनरलों के छक्के छुड़ाते हुए तीर की तरह निकल जाती है और अंग्रेज भौंचक्क देखते रह जाते हैं; क्या शौर्य और पराक्रम का इससे गौरवशाली और दिव्य चित्र कोई महान चित्रकार भी साकार कर सकता है? जो सचमुच वीर और पराक्रमी होते हैं वे अपना लहू देकर भी अतीत, वर्तमान और भविष्य का स्वर्णिम चित्र गढ़ते हैं। महारानी लक्ष्मीबाई, महारानी पद्मावती, महारानी दुर्गावती ऐसी ही दिव्य-दैदीप्यमान-उज्ज्वल चरित्र थीं। विश्व-इतिहास में महारानी लक्ष्मीबाई जैसा चरित्र ढूँढे नहीं मिलता, यदि उन्हें विश्वासघात न मिलता तो इतिहास के पृष्ठों में उनका उल्लेख किन्हीं और ही अर्थों व संदर्भों में होता।
नमन है उस वीरांगना को जिसके स्मरण मात्र से नस-नस में विद्युत-तरंगें दौड़ जाती हैं। कदाचित इस देश की ललनाएँ लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं से प्रेरित-पोषित होतीं! कदाचित इस देश के नौजवान ऐसे चरित्रों से सीख लेकर वैसा ही तेजस्वी, पराक्रमी, साहसी जीवन जीने का संकल्प धारण करते!
आज वीरांगना लक्ष्मीबाई का बलिदान-दिवस है। यह भारत-भूमि वीर-प्रसूता है। यहाँ बलिदान की गौरवशाली परंपरा रही है। हमें देश के लिए जीना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो मातृभूमि पर त्याग और बलिदान हेतु भी सदैव तत्पर रहना चाहिए। इसी में तरुणाई है, इसी में यौवन का असली शृंगार है, इसी में कुल-गोत्र-परिवार का मान व गौरव है। राष्ट्र-देव पर ताजे-टूटे पुष्प ही चढ़ाए जाते हैं, बासी-मुरझाए पुष्प तो राह की धूल में पड़े अपने भाग्य को तरसते-कोसते रहते हैं।
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