पद्मनाभस्वामी मंदिर पर न्यायालय के निर्णय से अन्य मंदिरों के भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने की आस
निवेदिता
केरल के तिरुवनन्तपुरम स्थित पद्मनाभस्वामी मंदिर को विश्व का सबसे धनी हिन्दू मंदिर माना जाता है। इसके प्रबंधन के बारे में उच्चतम न्यायालय ने वहां के राजपरिवार के स्वामित्व के पक्ष में निर्णय सुनाकर वर्षों से आहत हिन्दू आस्था को राहत दी है। न्यायालय के इस निर्णय से अन्य मंदिरों के भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने की आस बंधी है। लैंड आफ गॉड कहे जाने वाले केरल राज्य में लगभग साढ़े तीन हजार मंदिर ऐसे हैं जिनके प्रबंधन पर राज्य सरकार का नियंत्रण है। इन पर चढ़ने वाला चढ़ावा सरकार के हाथ जाता है।
क्या था मामला
हिन्दू मंदिरों की समृद्धि पर गिद्ध दृष्टि रखने वाली वामपंथी मानसिकता लगभग दो लाख करोड़ रुपये की संपत्ति वाले पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रशासन पर नियंत्रण चाहती थी। राज्य सरकार ने मंदिर का प्रबंधन हथियाने के लिए याचिका दायर की, जिस पर केरल के उच्च न्यायालय ने वर्ष 2011 में यह निर्णय दे दिया था कि त्रावणकोर के राजपरिवार के उत्तराधिकारी पूर्व शासक के निधन के साथ ही अब मंदिर प्रशासन पर राजपरिवार के नियंत्रण का अधिकार समाप्त हो गया है। साथ ही कहा गया कि राज्य सरकार मंदिर की पूंजी और प्रबंधन का नियंत्रण अपने हाथ में लेने के लिए न्यास गठित करे। इस पर राजपरिवार के सदस्यों द्वारा दायर याचिका में सुनवाई करते हुये उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी तथा कहा कि पहले खजाने में मूल्यवान वस्तुओं, आभूषणों इत्यादि का विस्तृत विवरण तैयार किया जाये। क्योंकि तब तक यह भी गणना नहीं हुई थी कि खजाने में क्या क्या है।
अब अंतिम निर्णय सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने राजपरिवार का प्रबंधन में अधिकार मानते हुए इसके लिए प्रबंध समिति गठित करने का आदेश दिया है। उल्लेखनीय है की पद्मनाभस्वामी मंदिर का निर्माण छठी शताब्दी में त्रावणकोर के राजाओं ने करवाया था। 1750 में राजा मार्तण्ड वर्मा ने खुद को भगवान का सेवक बताते हुए यानि पद्मनाभदास बताते हुए अपना जीवन और सम्पत्ति उन्हें सौंप दिए थे। उन्होंने 1733 में इसका पुनर्निर्माण करवाया था। वर्ष 1947 तक त्रावणकोर के राजाओं ने केरल में राज किया। अभी राज परिवार के सदस्य और उनके निजी ट्रस्ट मंदिर की देखरेख कर रहे हैं।
मंदिर के ‘बी’ तहखाने के लिए कहा जाता है कि इसको गरुड़ मन्त्र के स्पष्ट और सटीक उच्चारण के साथ ही खोला जा सकता है। इसके दरवाजे पर दो साँपों की आकृति बनी है और ये उसके रक्षक माने जाते हैं। इसे नागपाशम मन्त्रों से बंद किया गया है। अतः ऐसी मान्यता है कि मंत्रोच्चारों में किसी तरह की त्रुटि अनिष्ट को आमंत्रण दे सकती है।
अब इस तहखाने के बारे में न्यायालय ने प्रबंधन समिति को निर्णय का अधिकार दे दिया है। इसके शेष तहखाने वर्ष 2011 में उच्चतम न्यायालय के आदेश से खोले गए थे और उस समय यहाँ लगभग दो लाख करोड़ रुपए की सम्पत्ति का आंकलन किया गया। आभूषणों और तहखाने विशेष की मान्यता के कारण यह मंदिर बीते वर्षों में खूब चर्चा में आया। उस समय से लेकर आज तक षड्यंत्रकारी शक्तियों द्वारा हिन्दू मंदिरों पर इस बात को लेकर निशाना साधा जा रहा है कि इनके (मंदिरों) पास अकूत धन है जिसे भारतीय अर्थ व्यवस्था के उत्थान के लिए काम लेना चाहिए।
पद्मनाभस्वामी मंदिर पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय के उपरांत मीडिया में राजपरिवार के आदित्य वर्मा और उनकी माँ गौरी पार्वती बाई की ख़ुशी से आलिंगनबद्ध तस्वीरों ने सबका ध्यान खींचा। इस निर्णय में छिपी जो खुशी है वह इस बात की है कि अप्रत्यक्ष रूप से यह खजाना उन षड्यंत्रकारी वामपंथी शक्तियों के हाथों में जाने से बच गया जो इस पर लालची नजरें टिकाए हुए थीं।
पीपुल्स फॉर धर्म नामक गैर सरकारी संस्था जो इस मुकदमे से जुड़ाव रखती है – की अध्यक्ष शिल्पा नायर ने इस निर्णय पर ख़ुशी जताई। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय स्वागत योग्य है। इससे अन्य मंदिरों के सरकारी नियंत्रण से मुक्ति के लक्ष्य का मार्ग प्रशस्त होगा। यह संस्था मंदिरों के समुचित प्रशासन, पारदर्शिता और इनको सरकारी नियंत्रण से पृथक करने की लड़ाई लड़ रही है।
यह निर्णय हिन्दू समाज के लिए बहुत महत्व रखता है। बहुसंख्यक समाज होने के नाते हिन्दुओं की आस्था और धार्मिक भावना को सदैव बेहद हल्के लेने की एक राजनीतिक प्रवृति स्वतंत्रता के बाद से ही दिखाई देती रही है। जहाँ अल्पसंख्यकों को उनकी धार्मिक मान्यताओं, संस्थाओं और परम्पराओं में अभिवृद्धि करने का अधिकार है और इसके प्रति सरकारें विशेष संवेदनशीलता, यहाँ तक कि भीरूता की प्रवृति दिखाती हैं, वहीं बहुसंख्यकों की धार्मिक सम्पदा को सार्वजनिक संपत्ति की तरह प्रयोग करने का स्वभाव दिखाई देता है।
केरल स्थित इस सबसे धनी मंदिर की बात सामने आते ही हिन्दू विरोधी ताकतों की ललचाई नजरें इस पर गड़ गईं। कथित बुद्धिजीवी यह तर्क देने लगे कि इतने धन से तो केरल की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था बदल जाएगी। इसका सार्वजनिक उपयोग होना चाहिए। यही वह मानसिकता है जो हिन्दू मंदिरों पर नियंत्रण चाहती है और प्रश्न पैदा करती है कि मंदिरों का धन आखिर किस लिए होता है।
जिस समय तक भारत परतंत्र नहीं था तब तक मंदिरों का धन मंदिरों लिए ही था और यह एक निराकार धार्मिक अर्थव्यवस्था संचालन का आधार था। जिसके आधार पर भारत का धर्म, परंपरा, दर्शन, धार्मिक आयोजन संचालित होते थे, समृद्ध होते थे और पल्लवित होकर सामाजिक ताने बाने को सुदृढ़ करते थे।
स्वतंत्रता के बाद से ऐसा विषैला विचार प्रशासनिक तंत्र में प्रवाहित किया जाने लगा, मानो बहुसंख्यकों को उनकी आस्थाओं व परम्पराओं के संरक्षण की आवश्यकता ही नहीं है और जो भी विरासत है वह उस भ्रष्ट तंत्र पर लुटाने के लिए ही है जो अंग्रेज़ी मानसिकता से पैदा होकर भारत पर राज करने के लिए बना है।
स्वतंत्रता के प्रारम्भ से ही हिन्दुओं ने सरकारी नियंत्रण को अपने हित का मान कर आंखें मूँद लीं। पर आज जब परिणाम अमानत में खयानत के रूप में सामने आने लगा है तो आंखें खुली हैं। वामपंथी ताकतों के आधार पर चलने वाली सरकारों के राज्यों में तो हिन्दू मंदिरों से प्राप्त राशि अन्य धर्मों के बढ़ावे, उनके खर्च, से लेकर तमाम उन कार्यों के लिए खर्च की जा रही है जो किसी भी तरह से हिन्दू धर्म अथवा उसके मतावलम्बियों के हित में नहीं। और इस खर्च के बारे में किसी तरह की कोई पारदर्शिता भी नहीं बरती जाती। आप यह जान ही नहीं सकते कि आप द्वारा चढ़ाये गए उस चढ़ावे का सरकार किस किस मद में उपयोग कर रही है।
हमारी लड़ाई यहीं से शुरू होती है। जिसका रास्ता भगवान पद्मनाभस्वामी ने दिखाया है। आशा है कि हिन्दू समाज इस विषय पर सजग होकर आगे का रास्ता तय करने की रचना पर कार्य करेगा।
(लेखिका स्तम्भ लेखन, सामाजिक सुधार और जनजागरण के क्षेत्र में सक्रिय हैं)