चमकौर का युद्ध : गुरु परिवार का महाबलिदान

चमकौर का युद्ध : गुरु परिवार का महाबलिदान

विजय मनोहर तिवारी

चमकौर का युद्ध : गुरु परिवार का महाबलिदानचमकौर का युद्ध : गुरु परिवार का महाबलिदान

अंग्रेजी कैलेंडर में दिसंबर का महीना भारत के संघर्षपूर्ण इतिहास की चमकदार यादों का महीना है। विशेषकर आखिरी के ये दिन। ये दिल्ली पर मुगलों के कब्जे के समय की बात है, जब गुरु गोविंद सिंह उनकी नींव हिलाने में लगे थे। यही दिन थे, जब गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन की सबसे विकट लड़ाई में उतरे। औरंगजेब उन्हें जिंदा या मुर्दा कैसे भी देखना चाहता था।

22 दिसंबर, एक ऐसे दुखद प्रसंग का दिन, जिसने भारत को भारत होने के अर्थ दिए हैं। जिसने अपने समय के अनर्थ को चुनौती दी। अपने और अपने पूरे परिवार को इस देश के धर्म और संस्कृति के लिए बलिदान करने वाले महान सिख गुरु गोविंदसिंह के जीवन में आए सबसे विकट समय का एक दिन, जब उनके बेटे उनकी आंखों के सामने उनकी ही अनुमति से एक युद्ध के लिए जाते हैं। चारों तरफ से घेरे हुए मुगलों के भूखे भेड़ियों के आगे वे झुके नहीं। लड़े। जल्दी ही वे दीए बुझा दिए गए। यह 315 साल पहले की बात है मगर हमारी स्मृतियों में बहुत है नहीं। स्वाधीनता के बाद इस संघर्ष के पाठ हरेक भारतीय को स्कूल की शुरुआती कक्षाओं में ही पता होने थे, लेकिन वह सिर्फ सिखों का इतिहास होकर सिमट गया।

दिसंबर के उस पूरे घटनाक्रम को हर भारतीय को याद होना आवश्यक है :―

वह 1704 का वर्ष था। दिसंबर के उस पूरे घटनाक्रम को हर भारतीय को याद होना जरूरी है। वह महान योद्धा गुरुओं की ही आपबीती नहीं है। वह सिखों का भी इतिहास नहीं है। वह पंजाब की कहानी भी नहीं है। वह भारत का इतिहास है। हर भारतीय को पता होना चाहिए था। लेकिन उन्हें मारने वाले मुगल भारत का इतिहास बना दिए गए। उन्हें ग्रेट मुगल और महाबली अकबर, जाने क्या-क्या कहा गया। हम उन्हें ही सुनते-पढ़ते बड़े हो गए।

गुरु गोविंद सिंह ने आनंदपुर में 1699 में खालसा की स्थापना कर औरंगजेब के सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि हुकूमत के नाम पर कायम इस्लामी आतंक के सामने झुकने वाली कौम हम नहीं हैं। 1701 से दोनों के बीच खुली जंग का दौर शुरू हो गया, जो 1704 तक चला है। भारत के इतिहास की यह विडंबना ही रही है कि हम अपनों से ही हारे हैं। हर तरह के लालची धोखेबाज हर सदी में हर जगह रहे हैं, जिन्होंने अपनी संकीर्ण दृष्टि में सिर्फ अपने ही हित देखे। उनके पास दूर तक देखने की सामर्थ्य नहीं थी। वे देश को भी दांव पर लगा सकते थे। रिलीजियस कन्वर्जन तो वे कर ही रहे थे। वह हर हाल में अपनी जिंदगी और अपने हित ही चाहते थे। गुरुजी खालसा की स्थापना के बाद प्राप्त अपार लोकप्रियता और शक्ति के कारण सबसे पहले आसपास के पहाड़ी हिंदू राजाओं की आंखों में खटके। वे मूर्ख राजा उनसे लड़े। हार गए तो औरंगजेब में उन्हें अपना तारणहार नजर आया।

गुरुजी आनंदपुर में थे :―

गुरुजी आनंदपुर में थे। इन धोखेबाज पहाड़ी राजाओं और मुगलों के लुटेरे हमलावरों ने उन्हें लगभग छह महीने से चारों तरफ से घेर रखा था। जो उन्मादी भीड़ आज कई शहरों में भारत को मॉब-लिंचिंग का शिकार बनाने पर आमादा है, वैसी ही उन्मादी भीड़ वह थी। सत्ता के सब तरह के लालचियों का एक ताकतवर झुंड सत्य के दीए को बुझाने के लिए तब भी तत्पर था।

38 वर्षीय गुरु गोविंदजी से आनंदपुर के किले से सुरक्षित जाने का एक वादा किया जाता है। मुगल कुरान की कसमें खाते हैं। पहाड़ी राजा पवित्र गाय की सौगंध कि गुरुजी को सुरक्षित जाने दिया जाएगा, बशर्ते किला हमारे हवाले कर दिया जाए। खालसा के योद्धा सिख गुरुजी को बाहर लाते हैं। लेकिन जिनके रक्त में ही फरेब और धोखा बहता हो, उनसे किसी किस्म की समझदारी, संवेदनशीलता और वचनबद्धता की आशा बेकार तब भी थी, अब भी है।

मुगल चारों तरफ से गुरुजी के समूह पर टूट पड़े। वे किसी भी कीमत पर गुरुजी को जिंदा या मुर्दा चाहते थे। अचानक हमले की उस भगदड़ में गुरुजी का परिवार बिछड़ जाता है। दो बेटे उनके साथ रह जाते हैं-अजीत सिंह और जुझार सिंह। दो छोटे बेटे अपनी दादी माता गूजरी के साथ किसी और रास्ते पर निकल जाते हैं-फतेह सिंह और जोरावर सिंह। चारों तरफ से हजारों की पागल भीड़ भूखे भेड़ियों की तरह उनके शिकार की घात में है। कोई नहीं जानता कि अगले पल कौन बचेगा, कौन मरेगा। सरसा नदी खतरों से भरे इस संघर्ष में महान सिखों की वीरता की गवाह है। शाम होते ही अंधेरा छा गया था। अपने दो बेटों और 40 सिखों के साथ वे चमकौर की तरफ रवाना होते हैं। वे कुल 43 थे। उनसे हजार गुना बड़ी और ताकतवर इस्लामिक कट्टरपंथी भीड़ चप्पे-चप्पे में उन्हें ढूंढ रही थी।

चमकौर कोई बहुत महत्वपूर्ण किलेबंदी वाला ठिकाना नहीं था। उसका उल्लेख ऊंचे टीले पर बनी एक छोटी सी गढ़ी के रूप में है। बुधिचंद नाम का एक व्यक्ति इतिहास में इस नाते दर्ज हुआ कि उस जानलेवा हालात में उसने गुरुजी को अपनी हवेली में शरण दी। अब वे चमकौर की गढ़ी में थे, जहां का पता लगते ही मुगल भेड़ियों ने चीख-पुकार मचाते हुए उन्हें वहां भी आ घेरा।

दिसंबर के तीन महत्वपूर्ण दिन :―

यह 21, 22, 23 दिसंबर के तीन महत्वपूर्ण दिन हैं। मैं इन्हें भारत की स्वाधीनता के लंबे धारावाहिक की ही एक अहम और चमकदार कड़ी मानता हूं। सुहेल देव ने गजनवी के भांजे सालार मसूद को बहराइच में मार गिराया तो वह भी इस देश को बचाने का एक महान प्रयास था। राणा प्रताप अगर स्वाधीन भारत में “ग्रेट मुगल’ कहकर नवाजे गए महाबली अकबर को चुनौती देते हैं तो वह भी विदेशी हुकूमत के विरुद्ध मेवाड़ की एक बुलंद आवाज है। अगर छत्रपति शिवाजी महाराष्ट्र से हुंकार भरते हैं तो वह बहुत स्पष्ट रूप से स्वराज्य की घोषणा है।

स्वाधीनता की लड़ाई कोई 1857 के किसी शुभ मुहूर्त में आरंभ हुई हो और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बिना खड्ग बिना ढाल के उसे किसी शांतिपूर्ण अंत तक पहुंचा दिया हो, इस खाम-ख्याली में किसी भारतीय को रहना नहीं चाहिए। वह एक अंतहीन संघर्ष था। सशस्त्र संघर्ष। औरंगजेब के समय चमकौर में गुरु गोविंदसिंह उस विकट संघर्ष के महानायक थे।

एक-एक सिख को सवा-सवा लाख से लड़ाने का महाघोष वे ही कर सकते थे :―

वे अपने दो बेटों और 40 सिखों के साथ इस गढ़ी के चारों तरफ मंडरा रही मौत को अपनी आंखों से देख रहे थे। सरहिंद का नवाब वजीर खान मुगलों के इस गिरोह का सरगना था, जिसके पास 10 लाख लुटेरे हमलावरों की फौज थी। यह एक ऐसी मॉब-लिचिंग थी, जिसका परिणाम गुरुजी से बेहतर कोई नहीं जानता था। एक-एक सिख को सवा-सवा लाख से लड़ाने का महाघोष वे ही कर सकते थे। 18 साल के अजित सिंह और 14 साल के जुझार सिंह में भी उनका ही लहू बह रहा था। वे उनके आसपास थे।

गुरुजी ने 5-5 सिखों को सबसे पहले मुगलों की भगदड़ में लड़ने भेजा। वे स्वयं चमकौर की गढ़ी से मुकाबला देख रहे थे। मुगलों के बीच मारकाट मचाते हुए वे पांचों महावीर धराशायी हो गए। फिर एक और समूह ने अपने हिस्से की बहादुरी दिखाकर इस्लामी फौज को अधिकतम नुकसान पहुंचाते हुए अपनी आयु पूरी की। अब अजित सिंह ने जंग में जाने की अनुमति मांगी। नारा बुलंद हुआ- बोले सो निहाल, सतश्री अकाल। इस प्रकार चार सिखों के साथ इस महान युवा योद्धा ने भी मौत के मुंह की ओर प्रस्थान किया। देखते ही देखते एक दीया आंखों के सामने बुझ गया। अब अजित से चार वर्ष छोटे जुझार सिंह आगे आए और चमकौर के मैदान में औरंगजेब की विक्षिप्त इस्लामी फौज से टकराने के लिए मैदान में उतरे। कड़े मुकाबले में इतिहास देखता है कि उनका सिर भी झुका नहीं। उनकी तलवार हवाओं में बिजली सी कौंधती रही, लेकिन कब तक? अंतत: दूसरा दीया भी बुझ गया। देश के लिए खून का वह आखिरी कतरा किसी भाषण में नहीं बहा, चमकौर के मैदान में गिरा।

कड़ाके की सर्दी का वह दिन अस्त हो गया। वह 22 दिसंबर का ही दिन था। गुरु गोविंद सिंह को उस शाम शायद पता भी नहीं होगा कि उनकी माँ माता गूजरी और उनके दो मासूम बेटे इस समय कहां हैं, किस हाल में हैं, जीवित भी हैं या नहीं। फतेह सिंह आयु 8 वर्ष और जोरावर सिंह आयु 7 वर्ष। लेकिन वे इस समय कहां थे?

सरहिंद से निकलते समय हुए मुगलों के हमले की भगदड़ में वे गंगू नाम के एक सेवक के साथ सुरक्षित निकल गए थे। एक धोखेबाज हिन्दू यहां भी निकला। स्वयं गंगू, जिसने अपने तात्कालिक लाभ के लालच में सरहिंद के नवाब वजीर खान को उन्हें सौंप दिया। औरंगजेब के इस टुकड़खोर गवर्नर के सामने वे दोनों बेटे लाए गए। इस्लामी कानून (वल्लाह, क्या कानून है!) के अनुसार उन्हें जिंदा रहने के लिए इस्लाम कुबूल करने को कहा गया।

लेकिन गुरुजी के दोनों बेटे सीना तानकर खड़े रहे और ऐसा मजहब कुबूल करने से स्पष्ट मना कर दिया, जो जिंदा रहने की सजा के तौर पर उन्हें जीवन भर ढोना पड़ता। मासूम बच्चों को जिंदा दीवार में चुनवाने की सजा सुनायी गई। देखते ही देखते वे जिंदा दफन कर दिए गए। माता गूजरी को एक बुर्ज से नीचे फेंककर मार दिया गया। घृणा किसके रक्त में बहती दिख रही है? बेरहमी किसकी वैचारिक विरासत है? सेक्युलर सिस्टम में ऐसे असुविधाजनक प्रश्नों को करना गुनाह है। आप सांप्रदायिक घोषित हो सकते हैं। इसलिए चुप रहिए। झुककर रहिए।

गुरु गोविंद सिंह के बेटे झुके नहीं। उन्होंने अपना सम्मान गिरवी नहीं रखा। उनकी दृष्टि में जो छल-बल से गले उतारा जाए वो मजहब दो कौड़ी का था। जिन्होंने शक्ति या लालच में आकर अपनी आस्था बदल ली, इतिहास ने उनकी औलादों को बाद में एक उन्मादी भीड़ में बदलते देखा। उसी भीड़ ने सन् 47 में इस धरती के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसी भीड़ ने कश्मीर को लहूलुहान कर डाला। मुंबई से लेकर जयपुर तक, अक्षरधाम से लेकर संकटमोचन हनुमान तक धमाके करती रही। वह बात-बात पर भारत के माथे पर पत्थर बरसाती रही।

खण्डित भारत के लालची हुक्मरानों ने अपने देश को एक मजार बना लिया और जालीदार टोपी लगाकर सेक्युलरिज्म की हरी चादर चढ़ाकर चैन से सत्ता की चाशनी चूसने में लग गए। इस चादर को ओढ़े हुए हम 70 वर्ष पढ़ते रहे कि मुगल महान थे। अकबर दयावान था। औरंगजेब ने मंदिरों के लिए सनदें लिखीं। सूफी परंपरा की सुगंध क्या कमाल है। “डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के रचयिता ने ऐसा इंडिया डिस्कवर किया!

नेहरू की इस महान डिस्कवरी में हम चमकौर के बारे में कितना जानते हैं? क्या वह सिर्फ पंजाब का इतिहास है? क्या वह सिख की आंख से गिरा आँसू है, जिसका हमसे कोई लेना-देना नहीं? क्या वे गुरु पंजाब की सत्ता पर कब्जा करने के लिए खड़े हुए थे? पंडितजी से कौन कहां जाकर पूछे कि गंगा-जमनी रवायत का एक कतरा चमकौर की खूनी भगदड़ में कहां नजर आ रहा है?

सरहदें खिंचने के बाद भी औरंगजेब की वह जहरीली विरासत जेहन में फैली हुई है। मगर वे तो मुगल नहीं हैं। वे बादशाह और नवाब भी नहीं हैं। वे संख्या के पशु बल में बदल दी गई एक ऐसी उन्मादी भीड़ हैं, जिन्हें तलवार के जोर पर मजहब बदलने वाले अपने अपमानित पुरखों का चेहरा याद नहीं है। चमकौर के प्रकाश में इन बंद दिमाग लोगों को अपना आहत अतीत अनुभव करना चाहिए।

यह महीना और ये दिन उन अनगिनत वीर योद्धाओं के पवित्र स्मरण का अवसर हैं, जिन्होंने गुरु गोविंद सिंह, उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिंह और उनके चार मासूम बेटों की अमिट स्मृतियों से भारत को जगमगाया है। और वो कौन लोग हैं, जो भारत को अंधेरे से भर देना चाहते हैं? सर्वस्वदानी गुरु गोविंद सिंह उसी तरह के अंधे और अंधेरे युग में प्रज्वलित एक मशाल हैं। यह इस देश के धर्म पर महान सिखों का कर्ज है, जो कभी नहीं उतर सकता। हर भारतीय के मन में उनके प्रति उतनी ही श्रद्धा है, जितनी अपने देव और महादेव पर।

(वरिष्ठ पत्रकार, राज्य सूचना आयुक्त म.प्र., भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति एवं इतिहास के गहन अध्येता एवं मर्मज्ञ)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *