भगवान महावीर को बारम्बार प्रणाम!

भगवान महावीर को बारम्बार प्रणाम!

इन्दुशेखर तत्पुरुष

भगवान महावीर को बारम्बार प्रणाम!भगवान महावीर को बारम्बार प्रणाम!

वे राजकुल में जन्मे थे, पर राज नहीं किया। कोई युद्ध उन्होंने नहीं लड़ा। न सेना बनाई। न पराक्रम दिखाया। न शक्ति प्रदर्शन किया। कोई चींटी तक उन्होंने नहीं मारी फिर भी “महावीर” कहलाए। 

है न अद्भुत बात!

वस्तुत: बाहरी शत्रुओं को परास्त करने से अधिक कठिन है भीतरी शत्रुओं को परास्त करना। क्रांति के लिए बाहरी व्यवस्थाओं से पहले खुद की व्यवस्था को बदलना पड़ता है। पहली क्रांति स्वयं में घटित करनी होती है तब जाकर समाज जीवन में क्रान्ति घटित होती है। स्वयं के आचरण, व्यवहार और शील में परिवर्तन लाए बिना समाज में परिवर्तन करने का स्वप्न देखना–दिखाना छल और पाखण्ड है। दुश्मनों को बाहर ही बाहर ढूँढने के चक्कर में हम भीतर छुपे बैठे दुश्मनों को देखना भूल जाते हैं। उनका ख्याल ही नहीं आता। हमारे “अरि” बाहर ही नहीं होते। हमारे भीतर रहकर भी उपद्रव मचाते हैं। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, अभिमान …और भी न जाने कौन–कौन!

इनको पूर्णत: परास्त कर वह “महावीर” बना। आन्तरिक अरिगण का शमन कर वह “अरिहन्त” कहलाया। वासनाओं को जीत कर वह “जयी” कहलाया।

उत्तराध्यान सूत्र के नवें अध्याय की एक गाथा कहती है कि, युद्ध में हजारों–लाखों योद्धाओं को जीतने पर भी सर्वोत्तम विजय तब तक नहीं होती जब तक स्वयं को न जीत लिया जाए।

“जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे।

एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।।”

भगवान महावीर के दिखाए मार्ग पर चल कर कोटि–कोटि मनुष्यों ने मानव–मूल्यों की प्रतिष्ठा की। मनुष्य के आर्यत्व की रक्षा की। धर्म की जड़ सदा हरी रखी। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, ब्रह्मचर्य जैसे जीवन मूल्यों को धर्म की कसौटी बनाया। 

जैनाचार्यों ने “एकम् सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति” जैसी लोकतांत्रिक वैदिकी अवधारणा को “अनेकान्तवाद” का सुन्दर स्वरूप प्रदान कर भारतीय चिंतन के मूल चरित्र को स्वर दिया। सत्य के अनुसंधान के सभी मार्गों को उन्होंने स्वीकृति प्रदान की। “सप्तभंगी न्याय” के नाम से प्रसिद्ध यह सिद्धांत दर्शन के क्षेत्र में एक विलक्षण घटना है। जैन दार्शनिकों की यह ऐसी बेजोड़ देन है कि विश्व का कोई विचार इसका कभी अतिक्रमण नहीं कर सका। जैन दर्शन का खंडन करते हुए वेदान्त, सांख्य, न्याय आदि के आचार्यों ने तर्क के आधार पर इसे असिद्ध करने के प्रयास किए, किन्तु इससे बच वे भी नहीं सके। व्यावहारिक जीवन में इस अटल सत्य से कोई नहीं बच सकता। क्योंकि जीवन “ही–वाद” से नहीं “भी–वाद” से चलता है। दार्शनिकों की एक ही सत्य के भिन्न रूपों को पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य के रूप मानने की विवशता अथवा अनिर्वाच्या माया के द्वारा जगत प्रपंच के मिथ्यात्व का निरूपण; अन्ततः यही सिद्ध करता है। संसारभर में ऐसा अकाट्य सिद्धान्त कहीं और नहीं। 

जैन साहित्य का पहला सूत्रग्रंथ ईसा की दूसरी शताब्दी में लिखा गया। यह जैन धर्म का पहला संस्कृत ग्रंथ भी था। इससे पूर्व का जैन साहित्य प्राकृत भाषा में रचा गया था। “मोक्षशास्त्र” के नाम से प्रसिद्ध यह ग्रंथ “तत्वार्थ सूत्र” के नाम से भी विख्यात है। इसके रचयिता के बारे में रोचक तथ्य यह है कि दिगम्बर इन्हें “उमा स्वामी” के नाम से और श्वेताम्बर “उमा स्वाति” के नाम से जानते हैं। दोनों ही संप्रदायों में इस ग्रंथ की बड़ी मान्यता है, दोनों ही मतों के आचार्यों ने इसकी टीकाएं लिखीं। अनेक विलक्षण अर्थपूर्ण सूत्र इस ग्रंथ में हैं। उदाहरण के लिए भारतीय वाङ्मय के श्रेष्ठतम सूत्रों में से एक और अति प्रसिद्ध उक्ति –”परस्परोपग्रहो जीवानाम्”– इसी ग्रंथ का सूत्र है। (अध्याय 5/ 21)  

संसार में समरसता का भाव जगाने वाला तत्व तथा प्राणी विज्ञान की शाखा “इकोलॉजी” का सत्व उक्त सूत्र में देखा जा सकता है कि, “प्रत्येक जीव एक दूसरे का उपग्रह कर उसका उपकार करते हैं। सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणि एक दूसरे पर निर्भर हैं।” 

सत् /अस्तित्ववान् की परिभाषा करते हुए उमा स्वाति कहते हैं- “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।” अर्थात् जिसमें उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति है वह सत् है। 

उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय की ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में अंगीकृत पौराणिक मान्यता से इसका अत्यंत साम्य देखा है। इसका भाव यही है कि प्रत्येक पदार्थ में यह तीनों अवस्थाएं एक साथ संपादित होती रहती हैं। संसार में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कार्य निरंतर चलता रहता है। 

इधर कुछ मास पूर्व जी–22 सम्मेलन के अवसर पर जब “इण्डिया” के स्थान पर “भारत” को प्रतिष्ठापित करने का प्रसंग आया और देशभर में भारत शब्द की चर्चा पुनः चल पड़ी तो मेरा ध्यान अकस्मात् इस ग्रन्थ की ओर गया। तत्वार्थसूत्र के तृतीय अध्याय में जम्बूद्वीप को एक लाख योजन विस्तार वाला बताया है तथा इसके सात खण्डों का उल्लेख किया है, वह इस प्रकार हैं–

“भरत–हैमवत–हरि–विदेह–रम्यक–हैरण्यवत–ऐरावतवर्षा: क्षेत्राणि”।।१०।। (तृतीय अध्याय)

विशेष बात यह है कि यहाँ भारतखंड का जो परिमाप बताया गया है, उसके अनुसार भारत क्षेत्र कुल 526 योजन सहित 6 भाग 19 योजन विस्तार वाला है। अर्थात् भरत क्षेत्र का दक्षिण से उत्तर तक विस्तार 526+ 6/19 (526.316) योजन है। 

“भरत: षड्विंशतिपञ्चयोजनशतविस्तार: षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य”।।२४।। (तृतीय अ.)

भरत सहित जम्बूद्वीप के सातों खण्डों का परिमाप बताते हुए मुनिवर लिखते हैं कि, 

“भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवातिशत भाग:” ।।३२।। (तृतीय अध्याय)

अर्थात् भारत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप का 190वां भाग है। यहां शास्त्रकार की गणितीय परिशुद्धता भी परिलक्षित होती है कि 100000 में 190 का भाग देने पर परिमाण वही 526+ 6/19 (526.316) योजन आता है, जो पूर्व में उल्लिखित है। ध्यान देने की बात है कि विविध पुराणों में पाए जाने वाले भारत के भौगोलिक वर्णन से यह अत्यधिक साम्य रखता है। यह तथ्य विविध संप्रदायों की अपनी–अपनी मान्यताओं के बीच भारतीय ज्ञान–विज्ञान की परम्परा के सुसंवादी और अक्षुण्ण होने का भी द्योतक है।

जीवन में सदैव धर्म को धारण किए रखने का उपदेश देते हुए “उत्तराध्ययन सूत्र” में एक अर्थपूर्ण गाथा है–

“जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं।

विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गम्मि सोयइ।। 

एवं धम्मं विउक्कम्मं अहम्मं पडिवज्जिया।

बाले मच्चुमुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई।।”

[अध्याय 5 /14वीं–15वीं गाथा]

जैसे कोई मूर्ख गाड़ीवाला जानबूझकर अच्छे मार्ग को छोड़कर उबड़–खाबड़ रास्ते पर गाड़ी चलाता है और उसकी धुरी टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य धर्म का साथ छोड़, अधर्म का हाथ पकड़कर मृत्यु के मुख में चला आता है। और जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। धर्मावतार भगवान महावीर को स्मरण करते हुए उनको बारम्बार प्रणाम।

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