सम्पूर्ण यूरोप में है सनातन संस्कृति का प्रभाव

सम्पूर्ण यूरोप में है सनातन संस्कृति का प्रभाव

मेजर सुरेंद्र नारायण माथुर (एसएम, से.नि.)

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सम्पूर्ण यूरोप (Europe) में सनातन संस्कृति का प्रभाव रहा है। इनमें Celts, Baltic एवं Slavic आदि अनेक ऐसे समुदाय हैं, जिनकी मान्यताएं सनातन संस्कृति से मिलती जुलती हैं। Celtic समुदाय की बात करें तो, यह सम्पूर्ण यूरोप में फैला हुआ है, लेकिन ब्रिटेन (Britain), आयरलैंड (Ireland), फ्रांस (France), स्पेन (Spain), पुर्तगाल (Portugal), इटली (North Italy), गैलीशिया (Galicia), बाल्केन्स (Balkans) आदि क्षेत्रों में इसकी बसावट अधिक है। ये लोग Continents में भी बसे हुए हैं जैसे अमेरिका में इनकी जनसंख्या लगभग 20% मानी गई है। इस समुदाय के लोग भगवान परशुराम जी के समय वहॉं गए थे, जिन्हें वे Dagda के नाम से पूजते हैं। ऐसे ही यूरोप में एक बाल्टिक (Baltic) समुदाय है जो वर्तमान में प्रमुख रूप से लुथुआनिया, लटाविया (Latvia), एस्टोनिया (Estonia), पोलैंड (Poland), बेलोरूस (Belorussia) आदि देशों में बसा हुआ है। ये वैदिक संस्कृति को मानने वाले लोग हैं। इनकी भाषा भी संस्कृत से मेल खाती है। इंद्र, सूर्य, लक्ष्मी जी, काली माँ आदि इनके प्रमुख देवी देवता हैं।

इस लेख में आगे जिस समुदाय के लोगों की चर्चा होने जा रही है, वे यूरोप में स्लाविक (Slavic) नाम से जाने जाते हैं। ये लोग यूरोप में पोलैंड (Poland), चेक रिपब्लिक (Czech Republic), स्लोवाकिया (Slovakia), यूक्रेन (Ukrain), रूस (Russia), क्रोएशिया (Croatia) आदि देशों में बसे हुए हैं। इनकी मान्यताएं विष्णु पुराण से काफी मेल खाती हैं। ये लोग जम्बू द्वीप को बूलान द्वीप कहते हैं।

स्लाविक कॉस्मिक ट्री (Slavic Cosmic Tree)

स्लाविक (Slavic) समुदाय की ब्रह्मांडीय वृक्ष की कल्पना सनातन संस्कृति जैसी है। वे ओक (Oak) वृक्ष को इंद्र का वृक्ष मानते हैं। जहां शीर्ष पर इंद्र सहित चार देवताओं की कल्पना है। इंद्र को पेरुन (Perun) के नाम से जाना जाता है। इस वृक्ष की जड़ों में असुरों का वास है जो सर्प रूप में दर्शाए गए हैं। इनका नाम वल (Vele) एवं वृत्र (Vrat) है और वे इन्हीं नामों से विष्णु पुराण में भी जाने जाते है। वेदों में वृत्र एक ऐसा अझ़दहा है जो नदियों का मार्ग रोककर सूखा पैदा कर देता है और जिसका वध इन्द्र करते हैं। यही दंतकथा Slavic में भी प्रचलित है। उनकी कल्पना है कि वृक्ष के पास एक शिवलिंग नीमा सफ़ेद पत्थर है और उसके समीप एक कुआँ है, जिसमें सफ़ेद द्रव्य है, जहाँ से पवित्र सफ़ेद पत्थर पर पवित्र द्रव्य से अभिषेक कर पूजा अर्चना की जाती है। इस वृक्ष की सुरक्षा हेतु दो देवता भी हैं। पहले एक पक्षी रूप में, जिन्हें यूरोप में ग्रिफिन (Griffin) के नाम से जाना जाता है और वे सनातन संस्कृति में सर्वेश्वर स्वरूप शिवजी हैं। दूसरे देवता नीले पक्षी के रूप में हैं, जो आकाश है और उन्हें वे पक्षी रूप में गगन कहते हैं। भारत में भी आकाश को गगन कहते हैं। वृक्ष के दोनों ओर दो घुड़सवारों की कल्पना है, जिनमें एक सफ़ेद वस्त्र में सफ़ेद घोड़े पर सवार है और वह इंद्र का स्वरूप है जबकि दूसरा असुर है, जो काले वस्त्र में काले घोड़े पर सवार है।

उनका मानना है कि सुर एवं असुरों में निरंतर युद्ध होता रहता है, बीच में धरती माता है, जिसे कभी सुर और कभी असुर विजय कर लेते हैं। यह जीवन चक्र है जिसे विष्णु पुराण में बख़ूबी दर्शाया गया है जिसमें स्वर्ग पर कभी इंद्र और कभी असुरों का आधिपत्य होता रहता है और यही जीवन चक्र को दर्शाता है। धरती माता को वे मोक्ष (Mokosh) कहते हैं। हम भी मृतक जनों को मोक्ष (Mokosh) धाम लेकर जाते हैं और धरती माता में विलीनीकरण होने की कल्पना ही है।

उनकी यह भी कल्पना है कि इस ब्रह्मांडीय वृक्ष की रक्षा करता पक्षी एक पवित्र नदी के रूप में अवतरित होता है। जैसे सनातन संस्कृति की मान्यताओं में गंगा जी का अवतरित होना है।

इस समुदाय में दो सफ़ेद कबूतरों की भी दंतकथा है। यह भी मान्यता है कि इन दो कबूतरों में एक की आँख से आँसू के रूप में तीन जलधाराएं निकलती हैं, जो तीन पवित्र नदियों का स्वरूप लेकर पृथ्वी पर अवतरित होती हैं।

यह समुदाय के लोग होली भी मनाते हैं। ये घास के दो पुतले बनाते हैं, जिनमें एक पुरुष और दूसरा स्त्री का होता है। उन्हें लेकर गाँववासी संपूर्ण गाँव में उत्साह से घूमते हैं। तत्पश्चात् स्त्री वाले पुतले को आग लगा कर नदी नालों में प्रवाहित कर दिया जाता है। पुरुष पुतले को सुरक्षित रख लेते हैं।

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