वह विक्रम भी था और नारायण भी

वह विक्रम भी था और नारायण भी

प्रेरक प्रसंग -5

वह विक्रम भी था और नारायण भी
शनिवार रात्रि का समय था, कार्यकर्ता निधि समर्पण अभियान के अंतर्गत घर घर सम्पर्क कर वापस अपने घर लौट रहे थे। सिरोही रोड रेलवे स्टेशन की पटरियों के पास से गुजरे तो उन्होंने देखा, कोई 40 फ़ीट की दूरी पर एक बस्ती है … खुली बस्ती…. जिसमें ज्यादातर झुग्गियां हैं। झुग्गियां भी क्या … बस बांस के चार टुकड़े लगाकर, छप्पर डालकर फटे पुराने कपड़ों और पॉलीथीन से ढंके हुए टपरे हैं। कुछ छितराए हुए से बने पक्के मकानों के बीच से वे आगे बढ़े। थोड़ी दूरी पर सफेद चमकदार नवनिर्मित ऊँची अट्टालिकाएँ भी दिख रही थीं, जिनमें कुछ संभ्रात कहे जाने वाले लोग रहते हैं।  जिनके वाक्यों में अंग्रेजी के कुछ शब्द जोड़कर अपनी आधुनिकता के जबरदस्ती प्रदर्शन करने की आतुरता और कृत्रिमता अक्सर झलक जाती है।

चलते चलते वे एक छोटे से टपरे के पास पहुँचे। उन्होंने यूं ही आवाज लगाई – जय श्रीराम। टपरे के अंदर से प्रत्युत्तर आया … जय श्री राम! लेकिन आवाज कुछ सकुचाती और कंपकंपाती सी थी। टपरे में अंधेरा था। एक कार्यकर्ता ने झांक कर देखा तो एक दंपति 8-10 बच्चों के साथ अंदर बैठा दिखा। मुखिया का नाम था विक्रम नारायण। उसके हाथ में एक सधूक्कड़ी कटोरा था जिसे आमतौर पर फक्कड़ साधु पानी पीने एवं खाना खाने के लिए अपनी झोली में रखते हैं। विक्रम नारायण उकड़ूँ बैठा हुआ अपना भोजन समाप्त करने ही वाला था, कार्यकर्ताओं को देखकर कौतूहलवश जल्दी जल्दी अंगुलियाँ चाट कर और शीघ्रता से भोजन समाप्त करने की जुगत में लग गया। कार्यकर्ता रुक गए। विक्रम ने भोजन समाप्त किया और बाहर रखी एक टूटी फूटी बाल्टी से पानी लेकर हाथ धोये और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

कार्यकर्ताओं का संकल्प … राम काज के लिए हर घर जाना है…लेकिन यहॉं घर के अंदर की स्थिति, 10-12 सदस्यों के लंबे चौड़े परिवार और टपरे की जीर्ण शीर्ण अवस्था के साक्षात्कार ने उनके आत्मविश्वास को पहले ही डिगा दिया था। कुछ मांगना तो दूर, दृश्य की विपन्नता से उत्पन्न हृदय के कारुणिक प्रवाह ने उन्हें मौन ही कर दिया। फिर भी कुछ सकुचाते हुये एक कार्यकर्ता ने कहा, “अयोध्या में रोमजी रु मंदर बणे है जण वास्ते आया हो, थोरोई भाग चाहिजै”। इतना कह कर स्थिति को संभालने की आतुरता में कार्यकर्ता 10 के कूपन की बुकलेट संभालते हुये बोला – ” 10 राई कूपन है जको जो इच्छा वे श्रद्धा वे!” इतना सुनते ही कुछ सोचते हुये विक्रम नारायण टपरे में बैठे अपने बच्चों के बीच से जगह बनाते हुये, झुकते हुये जैसे तैसे भीतर गया। उसने अंदर जाकर अंधेरे में कुछ देर थैला टटोला और कुछ जुगत कर थोड़ी देर में एक नोट ले आया और कार्यकर्ता को पकड़ा दिया। कार्यकर्ताओं को लगा 10 का नोट है, पर ठीक से देखा तो वह 200 का था। कार्यकर्ताओं को विश्वास नहीं हुआ। एक ने पूछा – “कतरा करना है?” वह बोला – “जतराये है, ए रोमजी रा है।” पास खड़ा दूसरा टपरे वाला भी सुन रहा था। वह भी बिना कुछ कहे अंदर गया और नोट लाकर देते हुये बोला -“माराई लको पा”। यह नोट भी 200 का था।

शायद यह उनके परिवार की आज की मजदूरी थी या घर की पूरी बचत! यही नहीं जब कार्यकर्ता ने कूपन भरकर उसके हाथ में दिया और फोटो लेने लगा तो कूपन में अपने आराध्य भगवान राम का चित्र देखकर उसने कूपन को माथे से लगा लिया। इसी बीच कैमरा क्लिक हो गया। कैमरे ने उसके चेहरे नहीं बल्कि चरित्र का चित्र जरूर ले लिया।

श्रद्धा और मन की महिमा देखिये जहाँ कहीं कहीं वृहद अट्टालिकाओं के कई संभ्रांत कुबेरों ने कार्यकर्ताओं को ऑनलाइन पेमेंट का आश्वासन देकर टाल दिया था या अनमने मन से कुछ भी देकर छुट्टी कर दी थी! वहीं जीर्ण शीर्ण टपरों के इन दरिद्र नारायण ने प्रसन्न होकर खुले मन से श्रद्धापूर्वक अपना सर्वस्व और सर्वश्रेष्ठ समर्पित किया था।कभी अतीत में श्रीराम मंदिर के सृजनकर्ता विक्रमादित्य थे तो  वर्तमान में ऐसे प्रेरक हैं विक्रम नारायण जैसे लोग।

सच में वह विक्रम भी था और नारायण भी।

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