देश समाज को अजेय बनाने का संकल्प लेकर काम करना ही विजयादशमी का मर्म

देश समाज को अजेय बनाने का संकल्प लेकर काम करना ही विजयादशमी का मर्म

गिरीश जोशी

देश समाज को अजेय बनाने का संकल्प लेकर काम करना ही विजयादशमी का मर्मदेश समाज को अजेय बनाने का संकल्प लेकर काम करना ही विजयादशमी का मर्म

भारतीय और पश्चिमी उत्सव मनाने की पद्धतियों का अध्ययन करें तो समझ में आता है कि पश्चिम में उत्सव किसी न किसी प्रसंग की स्मृति में मनाए जाते हैं। उन उत्सवों के पीछे उस प्रसंग विशेष का स्मरण कर आनंद तथा उल्लास को बढ़ाना मुख्य उद्देश्य होता है। भारत में भी उत्सव मनाने के पीछे किसी प्रसंग की स्मृति के अलावा प्रकृति के साथ तालमेल, उल्हास- उमंग के अलावा हिंदू संस्कृति तथा हिंदू दर्शन में मानवता के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चल रही संघर्षपूर्ण यात्रा में विजय प्राप्त कर अगले पड़ाव की तरफ बढ़ना मूल मर्म होता है। लेकिन आज यदि हम देखें तो उत्सव मनाने के तौर तरीकों में उसका जो मर्म है वो कहीं पीछे छूटता नजर आता है।

विजयदशमी पर्व को हम बुराई पर अच्छाई की विजय के उत्सव का पर्व कहते है, दुष्टता – दुर्जनता- आतंक के प्रतीक के रूप में रावण का पुतला बनाकर उसे दहन कर जीवन में दुर्जनता के विरुद्ध चल रहे संघर्ष में अपना योगदान मान लेते हैं। वास्तव में देखा जाए तो मानव का अस्तित्व स्वयं ही संघर्षमय है। जब तक अस्तित्व है, तब तक संघर्ष है। जब तक संघर्ष है, तब तक ही अस्तित्व है। जब कोई आत्मा किसी शरीर से अलग हो जाती है, तो उस शरीर के लिए हर प्रकार का संघर्ष समाप्त हो चुका होता है। मानव जीवन के संघर्ष भी दो प्रकार के होते हैं। एक आंतरिक तथा दूसरा बाहरी संघर्ष होता है। आंतरिक संघर्ष के लिए छः बड़े शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद ,मत्सर बताए गए हैं। हमारी पांच ज्ञान ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्म इंद्रियां इन छह शत्रुओं से प्रभावित होकर संयुक्त सेना बना लेती है। इस सेना की शक्ति साठ गुना हो जाती है।

राम रावण युद्ध के समय का प्रसंग इस अवसर पर बारंबार स्मरणीय है। इस युद्ध प्रसंग में विभीषण एक क्षण के लिए भ्रमित हो जाता है, जब वो देखता है कि बलशाली रावण अपने दिव्य रथ पर सवार होकर अनेक अमोघ अस्त्रों के युद्ध के मैदान में खड़ा है। इधर भगवान राम, जिनके ना तो पैरों में खड़ाऊं है, न ही शरीर पर किसी प्रकार का कवच धारण कर रखा है। इस प्रसंग पर उसने राम भगवान से इस विसंगति को स्पष्ट करते हुए पूछा था कि आप इस बलशाली शत्रु से कैसे जीतेंगे। भगवान राम ने विभीषण को जो उत्तर दिया है, उसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में संक्षिप्त रूप से अत्यंत सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। प्रभु का विभीषण को किया गया यह उपदेश हर संघर्ष में विजय प्राप्त करने के लिए एक अचूक उपाय है।
श्री रामजी ने कहा- हे सखा! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ कुछ अलग ही प्रकार का होता है।
प्रभु ने कहा- “सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥”

अर्थात शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (धवल चरित्र) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं।

प्रभु के इस रथ का आज के परिप्रेक्ष्य में चिंतन करें, तो यह दिखाई पड़ता है कि रथ के पाहियों में जिस शौर्य और धैर्य का वर्णन किया गया है, आज हिन्दू समाज का धैर्य कुछ मामलों में तो इतना अधिक दिखलाई पड़ता है कि वो अपने समाज का हित एवं अहित अपने धर्म, संस्कृति पर होने वाले प्रगट एवं छुपे आक्रमणों पर भी धैर्य धारण कर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। आज हिंदुओं को अपने मित्र और शत्रु का बोध अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है। शत्रुओं के द्वारा किए जा रहे धर्म- संस्कृति- परंपरा के विरुद्ध की जा रही गतिविधियों, षड्यंत्रों क्रियाकलापों का विरोध करने का विचार भी मन में नहीं उठता। किसी भी प्रकार के अन्याय और अत्याचार को शोषण को अत्यंत धैर्य से सहन करने की आदत हिंदू समाज में के मन में दृढ़ता से स्थापित है। लेकिन इसके कारण भगवान राम द्वारा वर्णित विजय का रथ असंतुलित हो गया है। क्योंकि इसका संतुलन तो शौर्य के दूसरे पहिए से ही सध सकता है। शौर्य- पराक्रम किसी भी प्रकार के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध पहल करने की प्रेरणा देता है। शौर्य के कारण ही हम अपनी विजय प्राप्त करने की इच्छा से संघर्ष करने के लिए तत्पर हो पाते हैं। आज अगर इजराइल और हमास की स्थिति देखें तो हमास द्वारा किए गए आक्रमण के विरुद्ध प्रति आक्रमण के लिए इजराइल के नागरिक जो देश-विदेश में जहां-तहां अपने कार्य व्यवसाय में लगे हुए थे वो सब अपने कार्य व्यवसाय को छोड़कर अपने देश और धर्म पर हुए आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए शौर्य का प्रदर्शन करने लगातार वहां पहुंच रहे हैं।

भगवान राम किसी भी कार्य की सफलता के लिए यश और कीर्ति प्राप्ति हेतु केवल शौर्य और धैर्य के अलावा सत्य और सुशील यानी अच्छे चरित्र को भी महत्व देते हैं। यदि हमारा जीवन सत्य आधारित नहीं होगा, हमारा चरित्र सुशील नहीं होगा तो हमारे लिए सफलता बेमानी होगी। आज हमास के आतंकियों द्वारा यहूदी महिलाओं-बच्चों पर किये जा रहे अत्याचार आसुरी श्रेणी में आते हैं। जो सत्य निष्ठा एवं सुशील का अभाव दर्शाते हैं।

घोड़े गति का प्रतीक होते हैं, शक्ति का प्रतीक होते हैं। यदि हम सफलता प्राप्त करते चलें तो मन में एक बवंडर खड़ा होता है, जो या तो रचनात्मक हो सकता है या विध्वंसात्मक भी हो सकता है। इसीलिए उस शक्ति को वर्णित करते समय भगवान कहते हैं कि ये घोड़े बल, विवेक, दम और परहित के होना चाहिए। यानी हमारी शक्ति अपना बल बढ़ाने दुश्मन का बल घटाने तथा विवेक को हमेशा अपनी भावनाओं में ऊपर रखने साथ ही दम यानी इंद्रियों का दमन इंद्रियों के निग्रह के लिए उपयोग में लाना चाहिए।

इंद्रियां हर बार सुख और सुविधा की कामना करती हैं, लेकिन जो वीर इस सुख और सुविधा की कामना का परित्याग करते हैं, वे ही सफलता प्राप्त करते हैं। इन सबके अलावा यदि परहित यानी लोकहित की भावना मन में ना हो तो ये सारी बातें निरर्थक हो जाती हैं। लोकहित की भावना ही देव एवं दानव का अंतर स्पष्ट करती है। इसलिए भगवान ने इन चारों को घोड़े के रूप में अपने जीवन के रथ में लगाने की बात कही है।

इन पर अंकुश लगाने के लिए भगवान क्षमता और कृपा की डोरियों की लगाम की जरूरत बताते हैं। यदि मन में अपने स्वजनों को क्षमा करने का भाव नहीं होगा तो हम संगठन खड़ा नहीं कर सकते, इसी तरह दीन दुखियों तथा जरूरतमंदों पर कृपा यानी करुणा नहीं करेंगे अर्थात उनका सहयोग करने की भावना नहीं रखेंगे तो समाज में असंतुलन का निर्माण होगा और समाज कमजोर होगा। इसलिए रावण से संघर्ष में भगवान ने भरत से कह कर अयोध्या की सेना को नहीं बुलवाया बल्कि गिरी कंदराओं वनों में रहने वाले समाज को संगठित कर समाज की सेना बनाई।

जब इस प्रकार का रथ हमारे पास हो तो सारथी स्वयं को बनना खतरे से खाली नहीं होता क्योंकि हमारा मन, हमारी बुद्धि हमारे विचार सारथी के रूप में हमारा मार्गदर्शन निरपेक्षता से नहीं कर सकते। ये सब हमारे अलावा समाज का हित और अहित वैसे नहीं जानते जैसा ईश्वर जानता है। इसलिए यहां भगवान ने ईश्वर को सारथी बनाने के लिए कहा है। ईश्वर का अंश हमारे भीतर हमारी अंतरात्मा होती है और हमारी अंतरात्मा हमें हमेशा सही रास्ते पर ही चलने की प्रेरणा देती रहती है।

प्रभु आगे कहते है-“ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥” जब भगवान सारथी हो जाएं तो निश्चित सफलता मिलने लगती है। लेकिन यह सफलता प्राप्त करने के बाद हम अपने रास्ते से भटक न जाएं इसके लिए भगवान कहते हैं कि हमें विरक्ति का भाव अपने चर्म के समान सदैव धारण करके रखना चाहिए। अगर विरक्ति मन में होगी तो हम सफलता या सफलता,यश या अपयश किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होंगे। इसी तरह संतोष का कृपाण हाथ में रखने की बात भगवान कहते हैं। कृपाण काटने के काम आता है। यहां भगवान हमें हर प्रकार के प्रलोभन, आसक्ति, सुविधा का भोग आदि असुरों को संतोष की कृपाण से काटने का उपदेश दे रहे हैं।

भगवान कहते हैं- “दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।”दानशीलता वो फरसा है जिससे हम अपने पूर्व प्रारब्धों को कर्म बंधनों को काट सकते हैं। सफलता पाने के लिए प्रयत्न के साथ – साथ प्रारब्ध का ठीक होना आवश्यक होता है। साथ ही यदि बुद्धि का सही उपयोग करें तो उससे ज्यादा शक्तिशाली मित्र हमारा और कोई नहीं होता। विज्ञान यानी विशेष ज्ञान किसी भी विशेष में विशेषज्ञता हासिल करना एक धनुष के समान होता है क्योंकि धनुष किसी भी तीर को भीतर तक गहराई में भेजने का काम करता है। इसलिए विशेषज्ञता किसी भी क्षेत्र विशेष में गहराई तक उतरने के लिए आवश्यक होती है।

आगे प्रभु कहते है।”अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥”
यानी अमल (निर्मल) और अचल (स्थिर) मन तरकश के समान है। जैसा कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। लेकिन विजयशाली बनने के लिए मन का निर्मल और स्थिर रहना अत्यंत आवश्यक है। यहां निर्मल से तात्पर्य जगत कल्याण के लिए, समाज की सेवा के लिए, राष्ट्र की सेवा के लिए तैयार मन से है। साथ ही इस कार्य को करने के लिए आवश्यक है कि मन स्थिर रहे, चंचल मन किसी लक्ष्य का संधान नहीं कर सकता, सफलता पाने के लिए एक दिशा में, निरंतर कार्य करने के लिए जिस लगन की आवश्यकता होती है वो स्थिर मन से ही प्राप्त होती है। शम (इंद्रिय निग्रह), हमारी दसों इंद्रियों जिसमें पांच ज्ञानेंद्रिय और पांच कर्मेंद्रियां शामिल है सदैव बाहरी जगत से प्रभावित रहती है इन दसों इंद्रियों और उनके दोष रावण के दस मुख के समान है और इंद्रियों का दामन करके ही आंतरिक शत्रुओं से पार पाया जा सकता है।

यम और नियम- बाणों के समान हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन में संयमित हो कुछ निश्चित नियमों का पालन करता है उसकी क्षमताएं कुशलताएं कई गुना बढ़ जाती हैं। इसके पीछे एक विज्ञान है हमारा मस्तिष्क असीम संभावनाओं से भरा हुआ है। यदि हम किसी एक पैटर्न को फॉलो करते हैं तो हमारे दाएं और बाएं मस्तिष्क का सामंजस्य सही बैठने लगता है, जो हमारी क्षमताओं को कई गुना बढ़ाने में सहायक होता है।

विद्वानों और गुरुजनों का पूजन यानी अनुसरण अभेद्य कवच के समान है। अनुभव संपन्न और ज्ञान संपन्न लोगों से हमेशा परामर्श करते रहना चाहिए। जिससे हम कम प्रयासों एवं अनुभवजन्य युक्तियों का प्रयोग कर कम समय में निश्चित सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए भगवान राम ने गुरुजनों और विद्वतजनों का सम्मान करने का आग्रह यहां विभीषण से किया है।

आगे भगवान कहते हैं -“सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।”हे सखा! ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो उसको जीतने को कहीं शत्रु ही मिलता नहीं है॥अर्थात ऐसा धर्मनिष्ठ जीवन जीने वाला व्यक्ति जब समाज में तैयार होता है तब समाज भी धर्मनिष्ठ बनता है। ऐसे धर्मनिष्ठ समाज को दुनिया की कोई भी शक्ति हरा नहीं सकती।

आज के परिपेक्ष में यदि भगवान राम के इस मंत्र को प्रत्येक हिंदू अपने जीवन में धारण कर ले तो भारत को विश्व में सिरमौर बनने एवं अजय बनने से दुनिया की कोई शक्ति रोक नहीं सकती। आज जब भगवान राम की जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर का निर्माण हो रहा है, ऐसे समय में राम मंदिर की स्थापना के साथ प्रत्येक हिंदू के हृदय में इस वीरव्रत की, इस धर्मनिष्ठा की जागृति होना आवश्यक है। आज स्वाधीनता के अमृतकाल में प्रवेश करते हुए भारत से पूरे विश्व को बड़ी आशा है। इस आशा एवं अपेक्षा को पूरा करने के लिए प्रत्येक हिंदू विजयदशमी पर विजयी होने का संकल्प ले कर अपने देश एवं समाज को अजेय बनाने का संकल्प लेकर काम मे जुटे यही इस विजयदशमी के उत्सव का मर्म है।

(संस्कृति अध्येता एवं अकादमिक प्रशासक)

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