राजनीति के गलियारों में मौन रहना एक कलाकारी है, जो मदारी के खेल से भी कई गुना रहस्यमई होती है, जिस पर भेदभाव का पर्दा चढ़ा रहता है।

शुभम वैष्णव

बरसाती मेंढक की तरह टर्र टर्र करने वाले लोग अगर अचानक खामोश हो जाए तो बड़ा अजीब लगता है। कहा गया है कि मौन एक साधना है और मौन रहना एक कला भी है।

लेकिन राजनीति के गलियारों में मौन रहना एक कलाकारी है, जो मदारी के खेल से भी कई गुना रहस्यमई होती है, जिस पर भेदभाव का पर्दा चढ़ा रहता है।

हमारे यहां कई ऐसे राजनेता, मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवियों का समूह और मानवाधिकार वक्ता हैं, जो एक वीभत्स घटना होने पर तो रुदन मचा देते हैं, लेकिन दूसरी वीभत्स घटना पर मौन हो जाते हैं। एक ओर विरोध के नाम पर अवार्ड वापस किए जाते हैं और दूसरी ओर की घटना पर मौन धारण कर लिया जाता है। ऐसा एक बार नहीं बार-बार होता है। हर बार होता है और अब भी हो रहा है।

एक घटना पर असहिष्णुता यानी इनटोलरेंस और असुरक्षा का राग मल्हार गाया जाता है, वहीं दूसरी घटना पर राग अलापना तो दूर अपने मुंह के होंठ तक नहीं फड़फड़ाने दिए जाते हैं। आपको याद होगा याकूब मेनन जैसे आतंकवादी को बचाने के लिए कुछ लोग आधी रात को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं, परंतु याकूब मेनन द्वारा रचित साजिश बम ब्लास्ट में मारे गए लोगों की पीड़ा का कोई जिक्र तक नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग बुरहान वानी जैसे खूंखार हत्यारे को भटका हुआ नौजवान बताते हैं, वहीं आतंकियों द्वारा बर्बरता पूर्ण तरीके से औरंगजेब व अयूब पंडित की हत्या कर देने पर भी मानवाधिकार की बात करने वाले लोग मौन धारण कर लेते हैं। कुछ लोग आतंकी इशरत जहां की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाते हैं जबकि हमारे देश के सेनाध्यक्ष को गुंडा कहने पर मौन धारण कर लेते हैं।

कुछ लोग अपराधी को बचाने के लिए तो शोर मचाते हैं, परंतु निर्दोष को न्याय दिलाने के नाम पर चुप हो जाते हैं। यही इन लोगों का छद्म खेल है जो निरंतर पर्दे के पीछे से जारी है।

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